भिक्षुक कविता का केन्द्रीयभाव । bhikshuk poem by Suryakant Tripathi "Nirala"।

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        भिक्षुक कविता (bhikshuk poem by Suryakant Tripathi "Nirala") की है । यह कविता निरालाजी की प्रगतिवादी रचना है। यह कविता निरालाजी के काव्यसंग्रह परिमलसे लिया गया है। इस कविता में कवि ने एक 'भिक्षुकका अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। वर्ग-वैषम्य की प्रवृत्ति से आहत कविने 'भिक्षुककविता में दो टूक कलेजे केकरताअत्यधिक दुःखी भिक्षुक की कारुणिक दशा का मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किया है। 


                      भिक्षु  
                                  - सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’


वह आता --

दो टूक कलेजे को करता, पछताता

पथ पर आता।

 

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक,

मुट्ठी भर दाने को - भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता –

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

 

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,

बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,

और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।


भूख से सूख ओठ जब जाते

दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते ?

घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,

और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

 

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा

अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम

तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।


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भिक्षुक  कविता का  केन्द्रीयभाव :-

         'भिक्षुक' कविता छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की बहुत चर्चित कविताओं में से एक हैं। हिन्दी में इनका नाम सर्वोपरि है। छायावाद के आरंभ में ही कविने प्रगतिवाद की पृष्ठभूमि तैयार करी दी थी। उनका परवर्ती काव्य पूर्णतः प्रगतिशील चेतना से समृद्ध हो गया। निरालाजी पर कार्लमार्क्स की विचारधारा का गहरा प्रभाव था। इसलिए इनकी कविताओं में मार्क्सवादी चिंतन की गहन विचारणा से उपजी प्रगतिशील चेतना दृष्टिगोचर होती है।

                

      'भिक्षुक' कविता निरालाजी की प्रगतिवादी रचना है। यह कविता निरालाजी के काव्यसंग्रह “परिमल” से लिया गया है। इस कविता में कवि ने एक 'भिक्षुक' का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। वर्ग-वैषम्य की प्रवृत्ति से आहत कविने 'भिक्षुक' कविता में दो टूक कलेजे केकरता, अत्यधिक दुःखी भिक्षुक की कारुणिक दशा का मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किया है। इस कविता में कविने शब्दरुपी रेखाओं के द्वारा भिक्षुक का चित्र खींचा है। यह शब्दचित्र इतना तादृश्य है कि इस पढ़कर पाठकों के सामने भिक्षुक का शब्दचित्र खड़ा हो जाता है। 'भिक्षुक' कविता में निराला उस उपेक्षित (शाषित वर्ग) के प्रति अपनी करुणा व्यक्त करते है । जिन्हें समाज में सब तिरस्कृत करते हैं उनके प्रति कवि सहानुभूति प्रकट करते हैं।

 

       निरालाजी बहुत संवेदनशील है, उनसे किसी का दुःख देखा नहीं जाता। जब उस भिक्षुक को रास्ते में आते जाते देखते है तो कवि के हृदय में तीव्र दुःख होता है। अपनी करुणाजनक स्थिति से सबको वेदना से भर देता है। अपनी दीन अवस्था पर पछताता हुआ पथ पर आता है। भूख के कारण उसकी पीठ और पेट दोनों मिलकर एक हो गए है शारीरिक दुर्बलता के वजह से लाठी का सहारा लेकर चलता है। मुट्ठीभर दाने प्राप्त कर अपनी भूख मिटाने के लिए अपनी फटी हुई पुरानी झोली को लोगों के सामने फैलाता है। भूख से व्याकुल, अत्यधिक दुःखी होकर पछताता रास्ते पर आता है।


पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक,

मुट्ठी भर दाने को - भूख मिटाने को

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता –

दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।


        उपर्युक्त पंक्ति में कविने भिक्षुक का शब्द बिम्ब खींचा है। कवि कहते है कि उस भिक्षुक के साथ दो बच्चे भी है। भीख माँगने की आदत की वजह से इन बच्चों के हाथ सदैव भागने की मुद्रा में फैले हुए रहते हैं। अपनी भूख के दर्द को कम करने के लिए वे बच्चे बाये हाथ से अपना पेट सहलाते है और दया पाने के लिए दाहिना हाथ लोगों के सामने फैलाये रहते हैं। भूख के कारण इन बच्चों के होठ सूख जाते हैं। दाता तो उनके भाग्यविधाता है उनसे कई बार कुछ खाने के लिए नहीं मिलता है, तब वे मन मसोसकर रह जाते हैं। |

 

भूख से सूख ओठ जब जाते

दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते ?

घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।

 

         आगे भी कविने भिक्षुककी विवशता का चित्रण किया है। भिक्षुक जब भूख से व्याकुल हो जाता है जब वे बच्चें सड़क पर खड़े किसी धनिक के घर से फेंकी हुई झूठी पत्तले चाटने के लिए मजबूर हो जाता है। झूठी पत्तले भी इनके नसीब में नहीं होती तभी तो पत्तलो पर कुत्ते भी झपट पड़ते हैं। कवि निराला से इन भूखे लोगों का दर्द देखा नहीं जाता। वे अत्यधिक दुःखी हो जाता हैं। कविने इसके द्वारा भारत देश की आर्थिक और सामाजिक विषमता का चित्र खींचा है। एक ओर अमीर लोग बहुत सारा खाना झूठन के रूप में फेंक देते है, दूसरी ओर गरीबों को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती। कवि हमारे देश की ऐसी विषमता को देखकर अत्यन्त दुःखी है।

    

         भिक्षुक की यह दशा देखकर कवि का हृदय व्याकुल हो उठता है। कवि की समस्त संवेदना और सहानुभूति इन पीडितो के प्रति है तभी तो उनकी पीड़ा को दूर करने के लिए सोचतेहैं। बच्चों की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि मैं आपके लिए कुछ करना चाहता हूँ समाज में से यह विषमता मिटा देना चाहता हूँ परन्तु आपको भी संघर्ष करना पड़ेगा। आपको भी अभिमन्यू बनना पड़ेगा, जिस प्रकार अभिमन्यू ने अकेले ही सभी विरोधियों का मुकाबला किया, उसी प्रकार आपको भी सभी विघ्नों और विपरीत सामाजिक स्थितियों का सामना करना पड़ेगा। अंत में कवि कहता है कि वह ऐसे भिक्षुक के दुःखों को खींचकर अपने हृदय में रखना चाहता है और अपने हृदय की सारी संवेदनाओं से उनके दुःख खींच लेना चाहते हैं ।

 

संहार :-   

           संक्षेप में निरालाजी ने इस कविता के माध्यम से समाज में प्रवर्तित आर्थिक और सामाजिक असमानता के बारे में सोचने के लिए पाठकों को बाध्य किया है। एक ओर मुट्ठीभर शोषक लोग बड़े-बड़े महलों में ऐशो-आराम की जिन्दगी जीते है तो दूसरी ओर भिक्षुक वर्ग, मजदूर वर्ग, महेनत करने के बावजूद भी भूख से तडपते हैं। समाज में चल रहे अन्याय और असमानता के प्रति कवि के मन में तीव्र आक्रोश  है जो 'भिक्षुक' कविता के माध्यम से फूट पड़ा है।


 

 


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