भोर का तारा जगदीश चंद्र माथुर । Bhor ka tara aekanki ।

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          भोर का तारा (Bhor ka Tara) एक ऐतिहासिक एकांकी है। इसका कथानक गुप्त वंश के अन्तिम प्रतापी शासक स्कन्दगुप्त के शासन से सम्बन्धित है। उज्जयिनी गुप्त-साम्राज्य की वैभवपूर्ण नगरी थी। शेखर इसी नगरी का एक प्रतिभावान व भावुक हृदय कवि है जो हृदय-सृष्टि के अनुपम सौन्दर्य में डूबा रहता है तथा इसकी पूर्ति वह नारी अर्थात अपनी प्रेयसी छाया में देखता है। सम्राट कवि की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे राजकवि बना देता है तथा साथ ही उसका विवाह छाया से हो जाता है। छाया से विवाह के बाद वह प्रेम सौन्दर्य में लीन हो जाता है तथा छाया के अपूर्व सौन्दर्य में डूब कर "भोर का तारानामक रचना करता है तथा यह अद्भुत रचना वह राजा को भेंट करना चाहता है किन्तु अचानक राजनैतिक स्थिति में विस्फोट होता है। हुण शासक तोरमाण तक्षशिला पर आक्रमण कर देता है। राज्य के लिए यह संकट की घड़ी थी। माधव इस समय राज-कवि शेखर से उसकी वाणी मांगता हैशेखर अपने प्रेम व सौन्दर्य के जगत को त्याग कर अपने राजधर्म के निर्वाह हेतु 'भोर का ताराको अग्नि-भेंट करता है तथा लोक-मन में राष्ट्रप्रेम का भाव जगाने व बलिदान की प्रेरणा देने निकल जाता है।

                

लेखक-परिचय

        जगदीश चंद्र माथुर जन्म १६ जुलाई १९१७ को उत्तर प्रदेश के बुलंदशह जिले के खुर्जा में हुआ था और  देहावसान 14 मई 1978 में हुआ। श्री माथुर मूल रूप से नाटककार थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा खुर्जा एवं उच्च शिक्षा इलाहबाद में हुई। बिहार में शिक्षा सचिव व आकाशवाणी में महा संचालक सहित अनेक राजकीय पदों पर प्रतिष्ठित हुए ।


         विद्यार्थी जीवन से ही रचना कर्म में लीन हुए। माथुर जी ने वर्तमान समाज व इतिहास दोनों पर लिखा है। उनके सामाजिक नाटक आधुनिक समाज की विडम्बना पूर्ण स्थिति को उभारते हैं तो वहीं ऐतिहासिक नाटकों में अतीत के गौरव को उभारा है। इनके एकांकी जीवन की यथार्थ संवेदनाओं को उभारने में सक्षम हैं तथा पात्र अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व और चारित्रिक विशेषताएं रखते हैं । इनकी प्रमुख रचनाएं हैं 'भोर का तारा' (1946 ई.), 'कोणार्क' (1951 ई.), 'ओ मेरे सपने' (1950 ई.), 'शारदीया' (1959 ईं), 'दस तस्वीरें' (1962 ई.), 'परंपराशील नाट्य' (1968 ई.), 'पहला राजा' (1970 ई.), 'जिन्होंने जीना जाना' (1972 ई.) । श्री माथुर छायावादी संवेदना के रचनाकार हैं इनके नाटक मंचीय लोकप्रियता को प्राप्त हुए है।


 

        भो का तारा    

                                          - जगदीश चंद्र माथुर


पात्र :-

             शेखर - उज्जयिनी का कवि।

             माधव - गुप्त-साम्राज्य में एक राज्य-कर्मचारी (शेखर का मित्र)

             छाया - शेखर की प्रेयसी, बाद में पत्नी।


bhor ka tara aekanki, भोर का तारा एकांकी - जगदीश चंद्र माथुर, bhor ka tara kiski rachna hai, bhor ka tara kise kaha jata hai
 

भोर का तारा एकांकी कथावस्तु :-

         (कवि शेखर का गृह। सब वस्तुएँ अस्त-व्यस्त। बायीं ओर एक तख्त पर एक मैली फटी हुई चद्दर बिछी है। उस पर एक थौकी भी रखी है और लेखनी इत्यादि भी। इधर-उधर भोज-पत्र (या कागज) बिखरे हुए पड़े हैं। एक तिपाई भी है, जिस पर कुछ पात्र रखे हुए हैं। पीछे की ओर खिड़की है। बायाँ दरवाजा अंदर जाने के लिए है, और दायाँ बाहर जाने के लिए। दीवारों में कई आले या ताक हैं, जिनमें दीपदान या कुछ और वस्तुएं रखी हैं। शेखर कुछ गुनगुनाते हुए टहलता है या कभी तख्त पर बैठ जाता है। जान पड़ता वह संलग्न है। तल्लीन मुद्रा। जो कुछ वह कहता है, उसे लिखता भी जाता है)

 

            "अंगुलियाँ आतुर तुरत पसार”

            खींचते नीले पट का छोर... (दुबारा कहता है, फिर लिखता है)

            टॅगा जिसमें जाने किस ओर....

         स्वर्ण-कण स्वर्ण-कण... (पूरा करने के प्रयास में तल्लीन है। इतने में बाहर से माधव का प्रवेश । सांसारिक अनुभव और जानकारी उसके चेहरे से प्रकट है। द्वार के पास खड़ा होकर वह थोड़ी देर तक कवि की लीला देखता रहता है। उसके बाद ...)


      माधव - शेखर !

      शेखर - (अभी सुना ही नहीं। एक पंक्ति लिखकर) स्वर्ण-कण प्रिय हो रहा निहार !

       माधव – शेखर !

     शेखर - (चौककर) कौन ? ओह माधव। (उठकर माधव की ओर बढ़ता है)

     माधव - क्या कर रहे हो शेखर ?

    शेखर - यहाँ आओ माधव, यहाँ। (उसके कन्धों को पकड़कर तख्त पर बिठाता हुआ) यहाँ बैठो (स्वयं खड़ा है) माधव ! तुमने भोर का तारा देखा है कभी ?

     माधव - (मुस्कुराते हुए) हाँ क्यों ?

    शेखर - (बड़ी गम्भीरतापूर्वक) कैसा अकेला-सा. एकटक देखता रहता है ? जानते हो? नहीं जानते (तख्त के दूसरे भाग पर बैठता हुआ) बात यह है कि एक बार रजनी-बाला अपने प्रियतम प्रभात से मिलने चली, गहरे नीले कपड़े पहनकर जिसमें सोने के तारे टंके थे। ज्यों ही निकट पहुँची, त्यों ही लाज की आँधी आई और बेचारी रजनी को उड़ा ले चली। (रुककर) फिर क्या हुआ ?

        माधव - (कुछ उद्योग के बाद) प्रभात अकेला रह गया।

       शेखर - नहीं, उसने अपनी अंगुलियों पसार कर उसके नीले पट का छोर नीचे खींच लिया। जानते हो, यह भोर का तारा है न? उसी छोर में टैंका हुआ है सोने का कण एकटक प्रियतम प्रभात को निहार रहा है

.....क्यों?

         माधव - बहुत ऊँची कल्पना है। लिख चुके क्या ?

       शेखर - अभी तो और लिखूँगा। बैठा ही था कि इतने में तुम आ गये... !

        माधव - (हँसते हुए) और तब तुम्हें ध्यान हुआ कि तुम धरती पर ही बैठे थे, आकाश में नहीं (रुककर) मुझे कोस तो नहीं रहे हो शेखर ?

         शेखर - (भोलेपन से) क्यों?

        माधव - तुम्हारी परियों और तारों की दुनिया में मैं मनुष्यों की दुनिया लेकर आ गया।

        शेखर - (सच्चेपन से) कभी-कभी तो मुझे तुममें भी कविता दिख पड़ती है।

        माधव - मुझ में (जोर से हँसकर) तुम अठखेलियाँ करना भी जानते हो...? (गम्भीर होते हुए) शेखर, कविता तो कोमल हृदयों की चीज है। मुझ जैसे काम-काजी राजनीतिज्ञों और सैनिकों के तो छूने भर से मुरझा जायेगी। हम लोगों के लिए तो दुनिया की और ही उलझने बहुत हैं।

         शेखर - माधव, तुमने कभी यह भी सोचा है कि इन उलझनों से बाहर निकलने का मार्ग हो सकता है ?

        माधव - और हम लोग करते ही क्या हैं ? रात-दिन मनुष्यों की उलझनें सुलझाने का ही तो उद्योग करते रहते हैं।

          शेखर - यही तो नहीं करते। तुम राजनीतिज्ञ और मन्त्री लोग बड़ी सादगी के साथ अमीरी, गरीबी, युद्ध और सन्धि की समस्याओं को हल करने का अभिनय करते हो, परन्तु मनुष्य को इन उलझनों के बाहर कभी नहीं लाते। कवि इसका प्रयत्न करते हैं पर तुम उन्हें पागल ....

        माधव - कवि...? (अवहेलनापूर्वक) तुम उलझनों से बाहर निकलने का प्रयास नहीं करते, तुम उन्हें भूलने का प्रयास करते हो। तुम सपना देखते हो कि जीवन सौन्दर्य है। हम जानते रहते हैं और देखते हैं कि जीवन कर्तव्य है।

         शेखर - (भावुकता से) मुझे तो सौन्दर्य ही कर्त्तव्य जान पड़ता है। मुझे तो जहाँ सौन्दर्य दिख पड़ता है, वहाँ कविता दीख पड़ती है, वहीं जीवन दिखाई पड़ता है। (स्वर बदलकर) माधव, तुमने सम्राट के भवन के पास राज-पथ के किनारे उस अन्धी भिखमंगिन को कभी देखा है ?

          माधव - (मुस्कुराहट रोकते हुए) हाँ !

          शेखर - मैं उसे सदा भीख देता हूँ। जानते हो क्यो

          माधव - क्यों! (कुछ सोचने के बाद) दया सज्जन का भूषण है।

          शेखर – दया ? हूँ। (ठहरकर) में तो उसे इसलिए भीख देता हूँ क्योंकि उत्समें एक कविता, एक लय, एक कला झलकती है। उसका गहरा झुर्रियोंदार चेहरा, उसके काँपते हुए हाथ, उसकी आँखों के बेबस गर्छु (एक तरफ एकटक देखते हुए, मानो इस मानसिक चित्र में खो गया हो) उसकी झुकी हुई कमर-माधव, मुझे तो ऐसा जान पड़ता है मानो किसी शिल्पी ने उसे इस ढाँचे में ढाला हो।

      माधव - (इस भाषण से उसका अच्छा-खासा मनोरंजन हो गया जान पड़ता है। खड़े होकर शेखर पर शरारत-भरी आँखे गड़ाते हुए) शेखर, टाट में रेशम का पैबन्द क्यों लगाते हो? ऐसी कविता तुम्हें किसी देवी की प्रशंसा में करनी चाहिए थी।

          शेखर - (सरल भाव से) किस देवी की?

         माधव - (अर्थपूर्ण स्वर में) यह तो उसके पुजारी से पूछो।

          शेखर - मैं तो नहीं जानता किसी पुजारी को।

       माधव - अपने को आज तक किसी ने जाना है, शेखर! (हँस पड़ता है। शेखर कुछ समझकर झेंपता-सा है) पागल !.. (गम्भीर होकर बैठते हुए) शेखर, सच बताओ, तुम छाया को प्यार करते हो?

         शेखर - (मन्द, गहरे स्वर में) कितनी बार पूछोगे ?

          माधव - बहुत प्यार करते हो ?

       शेखर - माधव! जीवन में मेरी दो साधनाएं है... (तख्त से उठकर खिड़की की ओर बढ़ता हुआ) छाया का प्यार और कविता। (खिड़की के सहारे दर्शकों की ओर मुँह करके खड़ा हो जाता है)

         माधव - और छाया ?

         शेखर - हम दोनों नदी के किनारे हैं, जो एक दूसरे की ओर मुड़ते हैं, पर मिल नहीं सकते।

       माधव - (उठकर शेखर के कन्धों पर हाथ रखते हुए) सुनो शेखर, नदी सूख भी तो सकती है।

          शेखर - नहीं माधव, उसके भाई देवदत्त से किसी तरह की आशा करना व्यर्थ है। मेरे लिए तो उनका हृदय सूखा हुआ है।

         माधव – क्यों ?

      शेखर - तुम पूछते हो क्यों ? तुम भी तो सम्राट स्कन्दगुप्त के दरबारी हो। देवदत्त एक मन्त्री है। मला, एक मन्त्री की बहन का एक मामूली कवि से क्या सम्बन्ध है ?

     माधव - मामूली कवि ! शेखर, तुम अपने को मामूली कवि समझते हो ?

         शेखर - और क्या समझें ? राज-कवि ?

         माधव - सुनो शेखर, तुम्हें एक खबर सुनाता हूँ।

          शेखर – खबर ?

          माधव - हाँ, मैं कल रात को राज-भवन गया था।

          शेखर - इसमें तो कोई नई बात नहीं। तुम्हारा तो काम ही यह है।

          माधव - नहीं कल एक उत्सव था। स्वयं सम्राट ने कुछ लोगों को बुलाया था। गाने हुए, नाच हुए, दावत हुई। एक युवती ने बहुत सुन्दर गीत सुनाया। सम्राट तो उस गीत पर रीझ गये।

        शेखर - (उकताकर) आखिर तुम यह सब मुझे क्यों सुना रहे हो, माधव ?

        माधव - इसलिए कि सम्राट ने उस गीत बनाने वाले का नाम पूछा। पता चला कि उसका नाम था शेखर ।

          शेखर - (चौंककर) क्या ?

         माधव - अभी और तो सुनो। उस युवती ने सम्राट से कहा कि अगर आपको यह पसन्द है, तो इसके लिखने वाले कवि को अपने दरबार में बुलाइये। अब कल से वह कवि महाराजाधिराज सम्राट स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में जायेगा।

          शेखर – मैं ?

        माधव - (अभिनय-सा करते हुए, झुककर) श्रीमान् क्या आप ही का नाम शेखर है ?

       शेखर - मैं जाऊंगा सम्राट के दरबार में? माधव सपना तो नहीं देख रहे हो ?

        माधव - सपने तो तुम देखा करते हो? लेकिन अभी मेरा समाचार पूरा कहाँ हुआ है ?

           शेखर - हाँ, वह युवती कौन है ?

           माधव - अब यह बताना होगा? तुम भी बुद्ध हो! क्या इसी बूते पर प्रेम करने चले थे।

        शेखर - ओह! छाया... (माधव का हाथ पकड़ते हुए) तुम कितने अच्छे हो !

         माधव - और सुनो... सम्राट ने देवदत्त को आज्ञा दी है कि वह तक्षशिला जाकर वहाँ के क्षत्रप वीरभद्र को दबाए । आज देवदत्त के साथ मैं भी जाऊँगा, उनका मन्त्री बनकर । समझे ?

       शेखर - (स्वप्न -से में) तो क्या सच ही छाया ने कहा ? सच ही ?

          माधव - शेखर, आत दिन बाद आर्य देवदत्त और मैं तक्षशिला चल देंगे। ... उसके बाद, उसके ... बाद छाया कहाँ रहेगी भला बताओ तो ?

          शेखर - माधव (माधव हँस पड़ता) इतना भाग्य ? इतना ... विश्वास नहीं होता।

        माधव - न करो विश्वास ! लेकिन भले मानस, छाया क्या इस कूड़े में रहेगी। बिखरे हुए कागज, टूटी चटाई, फटे हुए वस्त्र । शेखर, लापरवाही की सीमा होती है।

            शेखर - मैं कोई इन बातों की परवाह करता हूँ।

            माधव - और फिर ?

           शेखर - मैं परवाह करता हूँ, फूल की पंखुडियों पर जगमगाती हुई ओस की. (भावोद्रेक से) संध्या में सूर्य की किरणों को अपनी गोद में समेटने वाले बादलों के टुकड़ों, सुबह को आकाश के कोने में टिमटिमाने वाले तारे की।

            माधव - एक चीज रह गई।

            शेखर – क्या ?

         माधव - जिसे तुम वृक्षों के नीचे दिन में फैली देखते हो। (उठकर दूर खड़ा हो जाता है)

          शेखर - वृक्षों के नीचे ?

           माधव - जिसे तुम दर्पण में झलकती देखते हो।

           शेखर - दर्पण में ?

         माधव - जिसे तुम अपने हृदय में हमेशा देखते हो। (निकट आ गया है) शेखर - (समझकर बच्चों की तरह) छाया! माधव (मुस्कुराते हुए) छाया।

(परदा गिरता है)

 

                                         (२)

 

                (उज्जयिनी में आर्य देवदत्त का भवन जिसमें अब शेखर और छाया रहते हैं। कमरा सजा हुआ और साफ है। दीवारों पर कुछ चित्र खिंचे हुए है। कोने में धूपदान भी है। सामने तख्त पर चटाई और लिखने पढ़ने का सामान है। बराबर में एक छोटी चौकी पर कुछ ग्रंथ रक्खे हुए हैं। दूसरी ओर एक पीढ़ा है, जिसके निकट मिट्टी की, किन्तु कलापूर्ण एक अँगीठी रक्खी हुई है, दीवार के भाग पर एक अलगनी है, जिस पर कुछ घोतियाँ इत्यादि टैंगी है।

                 छाया सौन्दर्य की प्रतिमा, चांचल्य उन्माद और गाम्भीर्य का जिसमें स्त्री-सुलभ सम्मिश्रण है, गृहस्वामिनी होने के नाते कमरे की सब वस्तुएँ ठीक-ठाक स्थान पर संभालकर रख रही है। साथ ही कुछ गुनगुनाती भी जाती है। जाड़ा होने के कारण तापने के लिए उसने अँगीठी में अग्नि प्रज्वलित कर दी। उसकी पीठ द्वार की ओर है। अपने कार्य और गान में इतनी संलग्न है कि बाहर पैरों की आवाज नहीं सुनाई देती ।)

गीत

प्यार की है क्या पहचान ?

चाँदनी का पाकर नव-स्पर्श, चमक उठते पत्ते नादान

पवन की परम सलिल की लहर, नृत्य में हो जाती लयमान

सूर्य का सुन कोमल पदचाप, फूल उठता चिडियों का गान

तुम्हारी तो प्रिय केवल याद, जगाती मेरे सोये प्राण

प्यार की है क्या पहचान?

 

(धीरे से शेखर का प्रवेश । कन्धे और कमर पर ऊनी दुशाला है, बगल में ग्रंथ। गले में फूलों की माला है। द्वार पर चुपचाप खड़ा होकर मुस्कुराते हुए छाया का गीत सुनता है।)

       शेखर - (थोड़ी देर बाद, धीरे से) छाया! (छाया नहीं सुन पाती है। गाना जारी है। फिर कुछ समय बाद) छाया!

         छाया - (चौंककर खड़ी हो जाती है। मुख फेरकर) ओह !

        शेखर - (तख्त की ओर बढ़ता हुआ) छाया तुम्हें एक कहानी मालूम है ?

          छाया - (उत्सुकतापूर्वक) कौन-सी !

        शेखर - (छोटी चौकी पर पहले तो अपनी बगल का ग्रंथ रखता है, और फिर उस पर दुशाला रखते हुए) एक बहुत सुन्दर-सी।

          छाया - सुने कैसी कहानी है ?

        शेखर - (बैठकर) एक राजा के यहाँ एक कवि रहता था, युवक और भावुक। राज-भवन में सब लोग उसे प्यार करते थे। राजा तो उस पर निछावर था। रोज सुबह राजा उसके मुँह से नई कविता सुनता था, नई और सुन्दर कविता।

        छाया - हूँ (पीढ़े पर बैठ जाती है, चिबुक को हथेली पर टेकती है)

             शेखर - परन्तु उसमें एक बुराई थी।

             छाया – क्या ?

         शेखर - कवि अपनी कविता केवल सुबह के समय सुनाता था। यदि राजा उससे पूछता कि तुम दोपहर या सन्ध्या को अपनी कविता क्यों नहीं सुनाते, तो वह उत्तर देता 'मैं केवल रात के तीसरे पहर में कविता लिख सकता हूँ।

         छाया - राजा उससे रूष्ट नहीं हुआ ?

        शेखर - नहीं। उसने सोचा कि कवि के घर चलकर देखा जाय कि इसमें रहस्य क्या है? रात का तीसरा पहर होते ही राजा वेश बदलकर कवि के घर के पास खिड़की के नीचे बैठ गया।

         छाया- उसके बाद ?

        शेखर - उसके बाद राजा ने देखा कि कवि लेखनी लेकर तैयार बैठ गया। थोड़ी देर में कहीं से बहुत मधुर सुरीला स्वर राजा के कान में पड़ा। राजा झूमने लगा और कवि की लेखनी आप-से-आप चलने लगी।

         छाया - फिर ?

       शेखर - फिर क्या ? राजा महल को लौट आया और उसके बाद उसने कवि से कभी यह प्रश्न नहीं पूछा कि वह सुबह ही क्यों कविता सुनाता था। मला, बताओ तो क्यों नहीं पूछा ?

         छाया – बताऊँ ?

          शेखर – हाँ !

          छाया - राजा को यह मालूम हो गया था कि उस गायिका के स्वर में ही कवि की कविता थी। और बताऊँ। (खड़ी हो जाती है)

        शेखर - (मुस्कुराता हुआ) छाया तुम ....

        छाया - (टोककर, शीघ्रत्ता और चंचलता के साथ) वह गायिका और कोई नहीं, उस कवि की पत्नी थी। और बताऊँ, उस कवि को कहानी सुनाने का बहुत शौक था - झूठी कहानी। और बताऊँ, उस कवि के बाल लम्बे थे, कपड़े ढीले-ढाले, गले में उसके फूलों की माला थी, माथे पर (इस बीच में शेखर की मुस्कुराहट हल्की हँसी में परिणत हो गई है, यहाँ तक कि इन शब्दों तक पहुँचते पहुँचते दोनों जोर से हँस पड़ते हैं)

         शेखर - (थोड़ी देर बाद गम्भीर होते हुए) लेकिन छाया, तुम्हीं बताओ-तुम्हारे गान, तुम्हारी प्रेरणा, तुम्हारे प्रेम के बिना मेरी कविता क्या होती? तुम तो मेरी कविता हो।

         छाया - (बड़े गम्भीर, उलहना-भरे स्वर में) प्रत्येक पुरूष के लिए स्त्री एक कविता है।

          शेखर - क्या मतलब तुम्हारा ?

         छाया - कविता तुम्हारे सूने दिलों में संगीत भरती है। स्त्री भी तुम्हारे ऊबे हुए मन को बहलाती है। जब पुरुष जीवन की सूखी चट्टानों पर चढ़ता-चढ़ता थक जाता है, तब सोचता है- चलो, थोड़ा मन बहलाव ही करें। स्त्री पर अपना सारा प्यार, अपने सारे अरमान निछावर कर देता है, मानों दुनिया में और कुछ हो ही नहीं। और उसके बाद जब चाँदनी बीत जाती है, जब कविता नीरव हो जाती है, तब पुरूष को चट्टानें फिर बुलाती हैं, और वह ऐसे भागता है मानों पिंजरे से छूटा हुआ पंछी। और स्त्री ? स्त्री के लिए वही अँधेरा, फिर वही सूनापन ।

        शेखर - (मन्द स्वर में) छाया, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो।

         छाया - क्या एक दिन तुम मुझे भी ऐसे छोड़कर न चले जाओगे ?

       शेखर - लेकिन छाया, मैं तुम्हें छोड़कर कहाँ जा सकता हूँ।

         छाया - उँहूँ, मैं नहीं मान सकती।

         शेखर - सुनो तो, मेरे लिए तो जीवन में ऐसी सूखी चट्टानें थोड़े ही हैं। मेरी कविता ही मेरी हरी-भरी वाटिका है। मैं उसे प्यार करता हूँ। क्योंकि मुझे तुम्हारे हृदय में सौन्दर्य दीखता है। जिस दिन मैं तुमसे दूर हो जाऊँगा। उस दिन में सौन्दर्य से दूर हो जाऊँगा, अपनी कविता से दूर हो जाऊँगा। (कुछ रुककर) मेरी कविता मर जायेगी।

        छाया- नहीं शेखर, मैं मर जाऊँगी, किन्तु तुम्हारी कविता रहेगी, बहुत दिन रहेगी।

         शेखर - मेरी कविता! (कुछ देर बाद) छाया, आज में तुम्हें एक बड़ी विशेष बात बताने वाला हूँ, एक ऐसा भेद जो अब तक मैंने तुमसे भी छिपा रक्खा था।

        छाया - रहने दो, तुम ऐसा भेद और ऐसी कहानियाँ सुनाया ही करते हो।

      शेखर - नहीं।... अच्छा तनिक उस दुशाले को उठाओ। (छाया उठाती है) उसके नीचे कुछ है। (छाया उस ग्रंथ को हाथ में लेती है) उसे खोलो। ... क्या है?

      छाया - (आश्चर्यचकित होकर) ओह? (छाया उलटती जाती है, शेखर की प्रसन्नता बढ़ती जाती है) 'भोर का तारा उफ्फोह ! यह तुमने कब लिखा ? मुझसे छिप कर ?

         शेखर - (हँसते हुए-विजय का-सा नाव) छाया, तुम्हें याद है उस दिन की, जब माधव के साथ मैं तुम्हारे भाई देवदत्त से मिलने इसी भवन में आया था ?

          छाया - (शेखर की ओर थोड़ी देर देखकर) उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ, शेखर ! उसी दिन तो भैया को तक्षशिला जाने की आज्ञा मिली थी, उसी दिन तो हम और तुम... (रुक जाती है)

         शेखर - हाँ छाया, उसी दिन मैंने इस महाकाव्य को लिखना प्रारम्भ किया था। (गहरे स्वर में) आज वह समाप्त हो गया।

           छाया - शेखर, यह हमारे प्रेम की अमर स्मृति है।

           शेखर - उसे यहाँ लाओ। (हाथ में लेकर, चाव से खोलता हुआ) 'भोर का तारा' । छाया, यह काव्य बड़ी लगन का फल है। कल मैं इसे सम्राट की सेवा में ले जाऊंगा। और फिर जब मैं उस सभा में इसे सुनाना आरम्भ करूँगा, उस समय सम्राट गद्गद् हो जायेंगे, और मैं कवियों का सिरमौर हो जाऊँगा। छाया, बरसों बाद दुनिया पढ़ेगी, कविकुलशिरोमणि शेखर कृत 'भोर का तारा' हा हा हा! (विभोर)

             (छाया उसकी ओर एकटक देख रही है। सहसा उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखा खिंच जाती है। शेखर हँस रहा है।)

          छाया - शेखर ! (वह हसे जा रहा है) शेखर ! (हसे जा रहा है) शेखर ! (शेखर की दृष्टि उस पर पड़ती है)

        शेखर - (सहसा चुप होकर) क्यों, छाया, क्या हुआ तुमको ?

           छाया - (चिन्तित स्वर में) शेखर ! (चुप हो जाती है)

          शेखर - कहो ।

           छाया - शेखर। तुम इसे सम्भालकर रखोगे न ?

          शेखर - बस, इतनी-सी ही बात ?

          छाया - शेखर, मुझे डर लगता है कि... कि... कहीं यह नष्ट न हो जाय, कोई इस चुरा न ले जाय, और फिर तुम....

          शेखर - हा हा हा। पगली, ऐसा क्यों होने लगा? सोचने से ही डर गई। छाया, तुम्हारे लिए तो आज प्रसन्न होने का दिन है, बहुत प्रसन्न । इधर देखो छाया, हम लोग कितने सुखी हैं? और तुम ? जानती हो, तुम कौन हो? तुम हो तक्षशिला के क्षत्रप देवदत्त की बहन और उज्जयिनी के सबसे बड़े कवि शेखर की पत्नी!... तक्षशिला का क्षत्रप और उज्जयिनी का कवि । हैं...हैं... हैं...! क्यों छाया ?

            छाया - (मन्द स्वर में) तुम सच कहते हो. शेखर! हम लोग बहुत सुखी हैं।

                शेखर - (मग्नावस्था में) बहुत सुखी !

                           (सहसा बाहर कोलाहल। घोड़े की टापों की आवाज। शेखर और छाया छिटककर चैतन्य खड़े हो जाते हैं। शेखर द्वार की ओर बढ़ता है।)

                 शेखर - कौन है ?

                            (सहसा माधव का प्रवेश। थकित और श्रमित शस्त्रों से सुसज्जित पसीने से नहा रहा है। चेहरे पर भय और चिन्ता के चिह्न है।)

शेखर और छाया-माधव।

                शेखर - माधव, तुम यहाँ कहाँ ?

                माधव - (दोनों पर दृष्टि फेंकता हुआ) शेखर, छाया (फिर उस कमरे पर डरती-सी आँखें डालता है मानो उस सुरम्य घाँसले को नष्ट करने से भय खाता हो। कुछ देर बाद बड़े प्रयत्न और कष्ट के साथ बोलता है) मैं तुम दोनों से भीख माँगने आया हूँ।

               (छाया और शेखर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं है)

                 छाया - भीख माँगने ? तक्षशिला से...?

                माधव - (धीरे-धीरे मजबूती के साथ बोलना प्रारम्भ करता है, परन्तु ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों स्वर में भावुकता आती जाती है) हाँ, मैं तक्षशिला से ही आ रहा हूँ। यहाँ तक कैसे आ पाया, यह मैं नहीं जानता। यात्रा के दिन कैसे बीते, यह भी नहीं जानता। यह जानता हूँ कि आज गुप्त-साम्राज्य संकट में है और हमें घर-घर भीख मांगनी पड़ेगी।

           शेखर - गुप्त साम्राज्य संकट में है। यह क्या कह रहे हो माधव ?

             माधव - (संजीदगी के साथ) शेखर, पश्चिमोत्तर सीमा पर आग लग चुकी है। हूणों का सरदार तोरमाण मारतवर्ष पर बढ़ आया है।

            छाया - (भयाक्रांत होकर) तोरमाण ?

           माधव - उसने सिन्धु नदी को पार कर लिया है, उसने अम्भी-राज्य को नष्ट कर दिया है, उसकी सेना तक्षशिला को पैरों तले रौंद रही है।

            छाया - (सहसा माधव के निकट जाकर, भय से कातर हो उनकी गुजा पकड़ती हुई) तक्षशिला ?

           माधव - (उसी स्वर में) सारा पंचनद आज उसके भय से काँप रहा है। एक के बाद एक गाँव जल रहे हैं। हत्याएँ हो रही हैं। अत्याचार हो रहा है। शीघ्र सारा ही आर्यावर्त पीड़ितों के हाहाकार से गूंजने लगेगा। शेखर, छाया, मैं तुमसे माँगता हूँ, नई भीख माँगता हूँ-सम्राट स्कन्दगुप्त की, साम्राज्य की, देश की इस संकट में मदद करो। (बाहर भारी कोलाहल। शेखर और छाया जड़वत् खड़े हैं।) देखो, बाहर जनता उमड़ रही है। शेखर, तुम्हारी वाणी में ओज है, तुम्हारे स्वर में प्रभाव। तुम अपने शब्दों के बल पर सोई आत्माओं को जगा सकते हो, युवकों में जान फूंक सकते हो। (शेखर सुने जा रहा है। चेहरे पर भावों का आवेग । मस्तक पर हाथ रखता है।) आज साम्राज्य को सैनिकों की आवश्यकता है। शेखर, अपनी ओजमयी कविता के द्वारा तुम गाँव-गाँव जाकर वह आग फैला दो, जिससे हजारों और लाखों भुजाएँ अपने सम्राट और अपने देश की रक्षा के लिए शस्त्र हाथ में लें। (कुछ रूककर शेखर के चेहरे की ओर देखता है। उसकी मुद्रा बदल रही है-जैसे कोई भीषण उद्योग कर रहा हो।) कवि, देश तुमसे यह बलिदान माँगता है।

           छाया - (अत्यन्त दर्द भरे करूण स्वर में) माधव। माधव।

          माधव - (मुड़कर छाया की ओर कुछ देर देखता है। फिर थोड़ी देर बाद) छाया, उन्होंने कहा था - 'मेरे प्राण क्या चीज हैं, इसमें तो सहस्रों मिट गये और सहस्रों को मिटाना है।‘

            शेखर - (मानों नींद से जगा हो) किसने ?

            माधव - आर्य देवदत्त ने, अन्तिम समय !

           छाया - (जैसे बिजली गिरी हो) माधव, माधव, तो क्या भैया....

            माधव - उन्होंने वीर गति पाई है, छाया! (छाया पृथ्वी पर घुटनों के बल गिर जाती है। चेहरे को हाथ से ढक लिया है। इस बीच में माधव कहे जाता है, शेखर एक-दो बार घूमता है। उसके मुख से प्रकट होता है मानो डूबते को सहारा मिलने वाला है।) तक्षशिला से चालीस मील दूर विद्रोही वीरभद्र की खोज में वह हूणों के दल के निकट जा पहुँचे। वहाँ उन्हें ज्ञात हुआ कि वीरभद्र हूणों से मिल गया है। उनके बीस सैनिक आगे हूणों में फंसे हुए थे। वे लक्षशिला लौट सकते थे और अपने प्राण बचा सकते थे। परन्तु एक सच्चे सेनापति की भाँति उन्होंने अपने सैनिकों के लिए अपने प्राण संकट में डाल दिये और मुझे तक्षशिला और पाटलिपुत्र को चेतावनी देने के लिए भेजा। मैं आज...

                  (सहसा रूक जाता है, क्योंकि उसकी दृष्टि शेखर पर जा पड़ती है। शेखर चौकी के पास खड़ा है। बाहर कोलाहल कम है। शेखर अपना हाथ उठाकर अपने ग्रंथ 'भोर का तारा' को उठाता है। इसी समय माधव की दृष्टि उस पर पड़ती है। शेखर पुस्तक को कुछ देर चाव से, बिछुड़न के प्रेम से देखता है। उसके बाद आगे बढ़कर अँगीठी के निकट जाकर उसमें जलती हुई अग्नि को देखता है और धीरे-धीरे उस पुस्तक को फाड़ता है। इस आवाज को सुनकर छाया अपना मुख ऊपर को करती है।)

छाया - (उसे फाड़ते हुए देखकर) शेखर !

               (लेकिन शेखर ने उसे अग्निमें डाल दिया। लपटें उठती हैं। छाया फिर गिर पड़ती है। शेखर लपटों की तरफ देखता है। फिर छाया की ओर दृष्टि करता है. एक सूखी हँसी के बाद बाहर चल देता है। कोलाहल कम होने के कारण उसके पैर की आवाज थोड़ी देर तक सुनाई देती है। माधव द्वार की ओर बढ़ता है।)

छाया - (अत्यन्त पीड़ित स्वर में) माधव, तुमने तो मेरा प्रमात नष्ट कर दिया। (माधव उसके ये शब्द सुनकर बाहर जाता-जाता रूक जाता है। मुड़कर छाया की ओर देखता है। और फिर पीछे की खिड़की के निकट जाकर उसे खोल देता है। इससे बाहर का कोलाहल स्पष्ट सुनाई देता है। शेखर और उसके साथ पूरे जनसमूह के गाने का स्वर सुन पड़ता है)

नकार पे डंका बजा है, तू शस्त्रों को अपने संभाल ।

बुलाती है वीरों को तुरही, तू उठ कोई रास्ता निकाल ।।

(शेखर का स्वर तीव्र है। माधव खिड़की को बन्द कर देता है। पुनः शान्ति। इसके बाद मन्द परन्तु दृढ़ स्वर में बोलता है)

         माधव - छाया, मैंने तुम्हारा प्रभात नष्ट नहीं किया। प्रभात तो अब होगा। शेखर तो अब तक 'भोर का तारा था अब यह प्रभात का सूर्य होगा।

           (छाया धीरे-धीरे अपना मस्तक उठाती है।)

(पर्दा गिरता है)

 

 

 


💠 भोर का तारा एकांकी में से पूछे जाने वाले प्रश्न जानिए 


प्रश्न 1. भोर का तारा का प्रकाशन कब हुआ था ?

उतर :- भोर का तारा का प्रकाशन  1946 में हुआ था ।

 

प्रश्न 2. जगदीश चंद्र माथुर का पहला एकांकी कौन-सा था ?

उतर :- जगदीश चंद्र माथुर का पहला एकांकी मेरी बाँसुरी था ।

 

प्रश्न 3. छाया के भाई का नाम है ?

उतर :- छाया के भाई का नाम देवदत्त है ।

 

प्रश्न 4. छाया के अनुसार प्रत्येक पुरुष के लिए स्त्री है

उतर :- छाया के अनुसार प्रत्येक पुरुष के लिए स्त्री एक कविता है ।

 

प्रश्न 5. गुप्त साम्राज्य में कौन-सा संकट उपस्थित हुआ ?

उत्तर:- गुप्त साम्राज्य में तोरमाण के आक्रमण का संकट उपस्थित हुआ था ।

 

प्रश्न 6. एकांकी में वर्णित गुप्त साम्राज्य का शासक कौन था ?

उत्तर :- एकांकी में वर्णित गुप्त साम्राज्य के शासक सम्राट स्कन्दगुप्त थे।

 

प्रश्न 7. माधव ने शेखर को तक्षशिला से आकर क्या सूचना दी ?

उत्तर :- माधव ने शेखर को बताया कि देश और गुप्त साम्राज्य संकट में है और देवदत्त शहीद हो चुके हैं।

 

प्रश्न 8. तोरमाण कौन था ?

उत्तर :- तोरमाण हूणों का सरदार था।

 

प्रश्न 9.शेखर ने अपने जीवन की कौन-सी दो साधनाएँ बताईं ?

उत्तर :- शेखर ने कविता और अपनी प्रेयसी छाया को अपने जीवन की दो साधनाएँ बताया।

 

प्रश्न 10. शेखर छाया को कौन-सा भेद बताता है ?

उत्तर :- शेखर छाया को उसके द्वारा उन दोनों के प्रेम का प्रतीक भोर का ताराकृति के पूर्ण होने का भेद बताता है।

 

प्रश्न 11. भोर का तारा एकांकी में प्रमुख भाव व्यक्त हुआ है ?

उतर :- भोर का तारा एकांकी में प्रमुख भाव राष्ट्रप्रेम व्यक्त हुआ है ।

 

प्रश्न 12. "तुम्हारी परियों और तारों की दुनिया में मैं मनुष्य की दुनिया लेकर आ गया " कथन किसके द्वारा कहा गया है ?

उतर :- तुम्हारी परियों और तारों की दुनिया में मैं मनुष्य की दुनिया लेकर आ गया " कथन माधव द्वारा कहा गया है ।

 

प्रश्न 13.. "सज्जन का भूषण है" पाठ के आधार पर बताइए ?

उतर :- पाठ के आधार पर दया को सज्जन का भूषण है बताया है ।

 

प्रश्न 14. चंद्रगुप्त के दरबार में देवदत्त किस पद पर आसीन था ?

उतर :- चंद्रगुप्त के दरबार में देवदत्त मंत्री के पद पर आसीन था ।

 

प्रश्न 15. देवदत्त तक्षशिला में किस के विद्रोह को दबाने गया था ?

उतर :-  देवदत्त तक्षशिला में वीरभद्र के विद्रोह को दबाने गया था ।

 

प्रश्न १६. मै जाऊँगा सम्राट के दरबार में ? पंक्ति में कवि शेखर का कौन सा भाव व्यक्त हुआ है ?

उतर :- मै जाऊँगा सम्राट के दरबार में ? पंक्ति में कविने  शेखर का आश्चर्य का भाव व्यक्त हुआ है ।

 

प्रश्न १७. कवि शेखर कब कविता लिखता है ?

उतर :- कवि शेखर रात में कविता लिखता है ।

 

प्रश्न 18. " भोर का तारा " को पाठ मे किसका प्रतीक बताया गया है ?

उतर :-  " भोर का तारा " को पाठ मे प्रेम का प्रतीक बताया गया है ।

 

प्रश्न 19. ‘वह अब प्रभात का सूर्य बनकर प्रकट होगा ‘ कथन में कौन प्रभात का सूर्य बनकर प्रकट होगा ?

उतर :- वह अब प्रभात का सूर्य बनकर प्रकट होगा ‘ कथन में शेखर प्रभात का सूर्य बनकर प्रकट होगा ।

 

प्रश्न 20. उज्जयिनी के सम्राट कौन हैं -

उतर :- उज्जयिनी के सम्राट स्कन्दगुप्त हैं ।

 

प्रश्न 21. आर्य देवदत्त कहाँ के क्षत्रप हैं ?

उतर :- आर्य देवदत्त तक्षशिला के क्षत्रप हैं ।

 

प्रश्न 22. कवि शेखर के महाकाव्य का नाम क्या है ?

उतर :- कवि शेखर के महाकाव्य का नाम भोर का तारा है ।

 

प्रश्न 23. शेखर को राजकवि क्यों बनाया गया ?

उत्तर :- किसी उत्सव के अवसर पर छाया के मुख से मधुर गीत सुनकर सम्राट स्कन्दगुप्त मंत्रमुग्ध हो गए। उनके द्वारा गीत के रचनाकार का नाम पूछे जाने पर छाया ने उन्हें शेखर का नाम बताया और उसे राजकवि बनाने की बात कही। छाया की बात मानकर और उसके द्वारा रचित गीत से प्रसन्न होकर सम्राट द्वारा शेखर को राजकवि बनाया गया।

 

प्रश्न 24. देश तुमसे यह बलिदान माँगता हैका आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर :- आशय- शेखर एक मधुर गान का कवि है। उसकी कविताएँ प्रेम और सौन्दर्य पर आधारित हैं। साथ ही उसकी वाणी ओजपूर्ण है, जो लोगों पर अपना पूर्ण प्रभाव छोड़ती है। इसलिए माधव उससे देश की रक्षा के लिए अपनी कविता का विषय प्रेम के स्थान पर देशप्रेम को बनाकर लोगों को स्वदेश की रक्षा लिए प्रेरित करने के लिए कहता है।

 

  

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