सूरदास के भ्रमरगीत सार की व्याख्या । bhramar git by suradas ।

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         "भ्रमरगीत" एक अद्वितीय और सुरीला संगीत काव्य है जो प्रेम और भक्ति के अद्भुत भावनाओं को अनुकरण करता है। इसमें प्राचीन रागों और तालों की मधुर समान्वय से सजीव होता है। भ्रमरगीत के शब्द गहरे और रंगीन होते हैं, जो सुनने वालों को भक्तिभाव में ले जाते हैं। इसमें प्रेम की उत्कृष्टता और भगवान के प्रति अद्वितीय समर्पण का वर्णन होता है। भ्रमरगीत सुनकर राग और भक्ति की ऊँचाईयों तक पहुंचने का अनुभव होता है।भ्रमरगीत, श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम को सुंदरता से व्यक्त करने वाला एक अद्वितीय संस्कृत साहित्य है। इसमें राग-भाव, सौंदर्य, और प्रेम की अद्वितीयता का अभास होता है। गीत की सुरमई धुन और शब्दों की कविता रचना भक्ति और सौंदर्य के संगम पर आधारित है।


सूरदास के भ्रमरगीत सार की व्याख्या (bhramar git by suradas)


 

                         भ्रमरगीत सार

        भ्रमरगीत सार आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित महाकवि सूरदास के पदों का संग्रह है। उन्होने सूरसागर के भ्रमरगीत से लगभग 400 पदों को छांटकर उनको 'भ्रमरगीत सारके रूप में प्रकाशित करवाया था। भ्रमरगीत सार सूरदास के महत्वपूर्ण काव्य कला का एक अंश है, जिसमें वह मधुर भक्ति संगीत में रूचि रखते हैं। सूरदास, भक्तिकाल के महान संत और कवि थे, जो अपनी रचनाओं में भक्ति, प्रेम, और भगवान के प्रति अपनी अद्वितीय प्रेम व्यक्त करते थे। उनकी कविताएं अधिकतर हिंदी भक्ति साहित्य में प्रसिद्ध हैं।

 

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ससंदर्भ व्याख्या कीजिए

 

  निर्गुन कौन देस को बासी ?

 मधुकर हँसि समुझायसौंह द बूझति सांचन हाँसी ।

 को है जनकजननि को काहयतकौन नारि को दासी?

   कैसो बरन भेष है कंसो केहि रस में अभिलासी ॥

   पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे ! कहँगो गांसी।

   सुनत मौन ह रह्यो ठग्यो सो सूर सबं मति नासी ॥

 


भूमिका :-

          उपरोक्त तमाम पंक्ति सूरदास रचित आ. रामचन्द्र शुक्ल संपादित 'भ्रमरगीतसारपुस्तक में से ली गई है। सूर भक्तिकाल के उत्कृष्ट कवि हैं। भक्तिकालीन कवियों में सूरदास का स्थान सर्वोपरि है। सूरदास श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे। भ्रमरगीत उनका सरस प्रसंग है। भ्रमरगीत के अंतर्गत उन्होंने वात्सल्य श्रृंगार और शांत रसों का भी बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।


प्रसंग :-

         उद्धवजी बार निर्गुण ब्रह्म की चर्चा करने लगे और अपने हरकतों से बाझ नहीं आए तो गोपियाँने उनकी अच्छी खबर ली और निर्गुण- ज्ञान का उपहास करती हुईं गोपियां उद्धव के प्रति उसकी निरर्थक स्थिति का वर्णन करते हुए करती है।

 

व्याख्या :-

            गोपियाँ उद्भव से कहती हैं कि तुम जिसकी चर्चा मना करने पर भी किये जा रहे होवह निर्गुण- ज्ञान किस देश का वासी है हम अपने उपास्य कृष्णजी के निवास स्थान से परिचित हैंक्या तुम जानते हो कि तुम्हारा ज्ञान किस स्थान का रहने वाला है हे मधुप ! (उद्धव) हमें हंसते हुए प्रसन्नतापूर्वक समझाओ। हम सौगन्ध देकर (शपथपूर्वक) सच्ची बात पूछती हैंयह हंसी नहीं हैअर्थात् यह उपहास नहीं है। उस निर्गुण ब्रह्म का कौन पिता है और कहो कि उसकी माता कौन है उसकी पत्नी कौन हैउसकी दासी कौन है उसका वर्ण (रंग) कैसा है भेस (वेश) कैसा हैऔर किस रस का अभिलाषी है अरे उद्धव ! यदि कुछ कपट अथवा चुभने वाली बात कही तो तू अपने किए का फल पाएगा। सूरदासजी कहते हैं कि गोपियों की इन सप्रश्न बातों को सुनकर उद्धव मौन होकर ठगे से रह गये और उनकी सारी मति(बुद्धि) नष्ट हो गई। अर्थात गोपियों के प्रश्न सुनकर उद्भव हतप्रभ हो गये और उनके तर्क का उत्तर देने में असमर्थ की उसकी बुद्धि ने भी जवाब दे दिया।

 

विशेषताएँ :-

(१) गोपियों का उद्धव के प्रति निर्गुण ब्रह्म पर करारा व्यंग्य है कि जो पाठ उद्धव गोपियों को पढ़ाना चाहते हैंउसके अक्षरों के रूप रंगउद्गम आदि से वे परिचित भी हैं या नहीं। ब्रह्म रूप-रंगआकार आदि से परे है। गोपियाँ इन्हीं तत्त्वों को आधार मानकर उद्धव पर व्यंग्य प्रहार करती है। फिर जिसे वेद नहीं जान पायेबेचारे उद्धव उसे कैसे जान सकते हैं।

(२) प्रस्तुत पद व्यंग्य काव्य का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण है। भ्रमर गीत की रचना इसी व्यंग्य काव्यरूप में हुई हैं।

(३) व्यंग्य शैली का सहारा लेकर निर्गुण वृण का खंडन किया है।

 

 


       मधुकर ! स्याम हमारे चोर ।

      मन हरि लियो माधुरी मूरति चित नयन की कोर ॥

       पकर्यो तेहि हृदय उर-अंतर प्रेम प्रीति के जोर ।

      गए छेड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर ।।

      सोवत तें हम उचकि परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर ।

      सूर स्याम मुसकनि मेरी सर्वस ले गए नंदकिसोर ॥

 


प्रसंग :-

           गोपियाँ उद्धव से श्रीकृष्ण के रूप-माध्यं का वर्णन कर रही हैं।

 

व्याख्या :-

           गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! श्रीकृष्ण हमारे चोर है। उन्होंने अपनी मूर्ति से नयनों के कटाक्षों द्वारा हमारे मन को चुरा लिया है। उस चोर श्रीकृष्ण को हमने अपने हृदय में प्रेम प्रीति के बल से पकड़ने का प्रयास भी कियापरन्तु वे हमारे इन सभी प्रेम-बन्धनों को तोड़कर चले गए और भेंट स्वरूप अपनी- मधुर मुस्कान छोड़ गए। उनकी मन्द मुस्कान सम्मोहकता से तब हमें ध्यान आयाजब कृष्ण हमारा सर्वस्व लूटकर प्रस्थान कर चुके थे। हमारी दशा इस प्रकार हो गईजिस प्रकार सोते हुए में कोई चौंक पड़ता है। इस मोह-निद्रा के भंग होते ही हमें वास्तविकता का ज्ञान हुआ। प्रातः होते ही हमें उनका दूत- अर्थात् आप स्वयं उद्धव मिल गए। सूरदासजी कहते हैं कि गोपियाँ कहने लगी कि श्रीकृष्ण अपनी मन्द मुस्कान द्वारा हमारा सर्वस्व चुरा ले गए हैं।

 

विशेषताएँ :-

(१) कृष्णजी ने मुस्कराते हुए गोपियों के मन को चुराया था और अब यह मुस्कान ही उनकी स्मृति शेष है। इसी का सम्बल लेकर वे जीवननिर्वाह कर रही हैं। विरह वर्णन का चित्रण है।

(२) कृष्ण के स्वभाव का भावोपण चित्रण किया गया है।

 

 


      ऊधो ! मन नाहीं दस बीस।

    एक हुतो सो गयो हरि के सँगको पराध तुव ईस ?

भई अति सिथिल सबै माधव बिन जथा देह बिन सोस ।

    स्वासा अटक रहे प्रासा लगिजीवहिं कोटि बरीस ॥

    तुम तो सखा स्यामसन्दर के सकल जोग के ईस ।

      सूरदास रसिक की बतियाँ पुरबौ मन जगदीस ||

 


प्रसंग :-

         निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने की असमर्थता प्रकट करते हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि किसी को मन द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है। हमारा मन तो श्रीकृष्ण के साथ ही मथुरा चला गयाअब हम तुम्हारे निर्गुण ज्ञानोपदेश को कैसे स्वीकार करें। अपनी इसी विवशता का वर्णन करते हुए गोपियाँ कह रही हैं कि

 

व्याख्या :-

          हे उद्धव । मन तो केवल एक ही होता है अर्थात् दस-बीस मन नहीं होते। हमारा भी एक ही मन था जो श्रीकृष्ण के साथ मथुरा चला गया। अतः तुम्हारे इस (ब्रह्म) की कौन उपासना करे आराधना तो मन से ही होती है उसके अभाव में हम किसकी आराधना करें। श्रीकृष्ण के वियोग में हम गोपियों की दशा उसी - प्रकार शिथिल एवं निर्जीव हो गई है जिस प्रकार मस्तक के कट जाने पर शरीर निर्जीव और निष्प्राण हो जाता है। हमारे शरीर में प्राण एकमात्र इसी आशा पर टिके हुए हैं कि श्रीकृष्ण कभी-न-कभी अवश्य लौटेंगे और हम उनके दर्शन कर अपनी प्यास बुझायेंगी। हम इस आशा के सहारे करोड़ों वर्षों तक जीवित बनी रहेंगी। अर्थात् हम उनके दर्शन किये बिना प्राणों का त्याग भी नहीं कर सकेंगी। सूरदासजी कहते हैं कि गोपियाँ कहने लगीं कि हे उद्धव ! तुम तो श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के अभिन्न मित्र हो और योगसाधना के परम ज्ञाता हो। इसलिए हमारी तुमसे यही विनंती है कि संसार के स्वामी श्रीकृष्ण में रसिकतापूर्ण वही सारी बातें उत्पन्न कर दो जिन्हें वे यहाँ किया करते थे। उन बातों का स्मरण कर उन्हें हमारी अवश्य ही सुध आ जायेगी और वे यहाँ अवश्य लौट आयेंगे।

 

विशेषताएँ :-

(१) प्रस्तुत पद काव्य और संगीत का अनुपम उदाहरण है।

(२) अन्तिम दो पंक्तियों में गोपियाँ उद्भव से प्रार्थना कर रही हैं कि वे अपनी योग साधना द्वारा श्रीकृष्ण के मन में उन पुरानी केलि-क्रीड़ाओं की स्मृति जागृत करेंजिससे श्रीकृष्ण उनका स्मरण कर पुनः ब्रज लौट आएँ।

(३) जथा देह 'बिनु शीश’  में उदाहरण अलंकार है ।

(४) स्वासा अटक रहे आथा लीए में जीवन तराशा हुआ मुहावरा है।

(४) विवशता में संयासीभाव की व्यंगना की गई है।

 




     संदेसो देवकी सों कहियो ।

        हों तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो ।

        उबटन तेल और सातो जल देखत ही भजि जाते।

            जोइ जोइ मांगत सोइ सोइ देती करम करम करि न्हाते ।।

           तुम तो टेव जानतिहिं हो तऊ मोहि कहि प्राव ।

         प्रात उठत मेरे लाल लड़तेहि माखन रोटी भावं ॥

    अब यह सूर मोहिं निसिबासर बड़ो रहत जिय सोच ।

         अब मेरे अलक-लड़ते लालन  हैं करत संकोच ॥

 

 


प्रसंग :-

        लाडले श्रीकृष्ण के वियोग में दुखी माता यशोदा उद्धव द्वारा देवकी को संदेश भिजवाती हुई कह रही हैं कि-

 

व्याख्या :-

          हे उद्भव ! मथुरा जाकर तुम देवकी से मेरा यह सन्देश कह देना कि मैं तो तुम्हारे पुत्र की दाई हैअतः इसी सम्बन्ध से मुझ पर अपनी स्नेह एवं कृपा दृष्टि बनाए रखना। जब श्रीकृष्ण मेरे पास यहाँ रहते - थे तो उस समय जब मैं उन्हें स्नान कराने के लिए उबटनतेल और गर्म पानी तैयार करती थी तो वह वहां से भाग जाया करते थे। उस समय वह जो-जो वस्तुएँ माँगते थे मैं वही देने का प्रयत्न करते कराने के लिए उन्हें मनाती थी। इस प्रकार वह धीरे-धीरे अथाक प्रयत्न करने पर स्नान करते थे। हे उद्धव हुए स्नान ! तुम देवकी को यह कहना कि तुम तो लाड़ले कन्हैया की माँ हो अतः उनके स्वभाव को भली-भांति जानती हो फिर भी मुझे कृष्ण के स्वभाव का वर्णन करना अच्छा लगता है। मेरे लाडले को प्रातः उठते ही माखन रोटी खाना प्रियकर है। अतः मेरे हृदय में रात-दिन यही चिंता लगी रहती है कि अब वहाँ तुम्हारे पास पहुंच जाने पर मेरे लाडले को माखन-रोटी मांगने में संकोच होता होगा। कहने का आशय यह है कि तुम उन्हें प्रातः उठते ही बिना मांगे ही माखन रोटी दे दिया करो।

 

विशेषताएँ :-

(१) सूरदासजी ने प्रस्तुत पद में वात्सल्य भाव का सजीव एवं मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। 'धायशब्द यशोदा की असीम ममताअसा विरह वेदना और नारी हृदय की विवशता का प्रतीक बन गया है।

(२) अलंकार : 'जोइ जोइ करि न्हातेमें पुनरुक्ति प्रकाश । 

             



          आयो घोष बड़ो व्योपारी ।

    लादि खेप गुन ज्ञान- जोग की ब्रज में आय उतारी ॥

      फाटक दे कर हाटक माँगत भोर निपट सुधारी ।

       धुर ही ते खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी ।

       इनके कहे कौन डहकावे ऐसी कौन अजानी ?

       अपनो दूध छाँड़ि को पीव खार कप को पानी ॥

       ऊधो जाह सबार यहाँ ते बेति गहरु जनि लावौ ।

       मुँहग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावो ||

 


प्रसंग :-

             निर्गुण ब्रह्मोपासना की शिक्षा देने के उद्देश्य से आये उद्धव के सन्देश पर गोपियाँ व्यंग्य कर रही हैं। वे योग-साधना को तुच्छ समझती हैं। उनकी दृष्टि में केवल कृष्ण प्रेम ही प्राप्य है और वे उसी की उपासिका हैं। वे उद्भव को सम्बोधित न करके परस्पर वार्तालाप करती हैं।


व्याख्या :-

          गोपियाँ उद्धव को अपने गाँव में आया देखकर एक-दूसरे के प्रति कहने लगती हैं कि हमारी अहीरों की (छोटी-सी ) बस्ती में एक बहुत बड़ा व्यापारी आया है। उसने ज्ञान और योग के गुणों का बोझ ( सिर पर ) लादा हआ हैजिसे उसने ब्रजभूमि में आकर उतार दिया है। वह भसा (अनाज की फटकन) देकर स्वर्ण (सोना) माँग रहा है। हमें निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देकर हमसे उसके दाम स्वरूप कृष्ण प्रेम लेना चाहता है अर्थात् वह निर्गुण ब्रह्मोपासना को प्राप्त करने और कृष्ण प्रेम को छोड़ देने की बात कह रहा है। (गोपियाँ उद्धव के निर्गुण- ज्ञान को भूसा और अपने कृष्ण प्रेम को स्वर्ण-तुल्य समझती हैं) वह (व्यापारी) अपने को समझदार और यहाँ के लोगों को नितान्त भोला समझता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस व्यापारी को मूल अर्थात् आरम्भ से ही हानि हुई हैइसलिए यह सिर पर भारी बोझ को लिए फिरता है। अर्थात् लगता है इसका माल खोटा हैअन्यथा उसे न तो हानि ही होती और न सारा माल सिर पर उठाकर घूमना पड़ता । यहाँ ऐसा कौन अज्ञानी हैजो इसके कहने में आकर धोखा खाएगा अर्थात् गोकुल में ऐसा कोई अज्ञानी (मूर्ख) नहीं हैजो इसके कहने में आकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने लगेगा। ऐसा कौन हैजो अपना (घर का) दूध छोड़ कर खारे पानी के कुएँ का जल पीएगा गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम यहाँ से सवेरे ही ( जल्दी ही) चले जाओ और अधिक विलम्ब मत करो। सूरदासजी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहने लगी कि यदि तुम अपने साहूकार ( महाजन अर्थात् - श्रीकृष्णजिसने तुम्हें यहाँ व्यापार करने के लिए भेजा है) को यहाँ लाकर हमें उसका दर्शन करा दो तो मुँहमाँगा मूल्य पाओगे।

 


विशेषताएँ :-

(१) यहाँ निर्गुण- ज्ञान की उपेक्षा व्यंजित है।

(२) अलंकार (क) समस्त पद में रूपक । (ख) 'खार कुप….. को पानीमें दृष्टान्त ||

 



      लरिफाई को प्रेम कही अलिकैसे करिकै छुटत ?

    कहा कहीं ब्रजनाथ चरित अब अन्तरगति बो लूटत ॥

  चंचल चाल मनोहर चितवनिवह मुसुकानि मंद धुनि गावत ।

 नटवर भेस नन्दनन्दन को वह बिनोद गृह बन ते आवत ॥

 चरनकमल की सपथ करति हौं यह सँदेस मोहि बिष सम लागत । 

सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन मूरति सोवत गत ॥

     


प्रसंग :-

        उद्धव गोपियों को कृष्णजी के प्रति विरक्त करना चाहते हैंपरन्तु गोपियाँ इसके लिए तैयार नहीं हैं। वे अपने कृष्ण प्रेम की दुहाई देते हुए बार-बार यही कहती हैं कि हम तो श्रीकृष्णजी के साथ समरूप हो चुकी हैं। अपनी निदरूपता सिद्ध करने के लिए वे अनेक तर्क देती हैं। इस पद में गोपियों ने अपने बाल्यकालीन कृष्ण - साहचर्य का उल्लेख कर प्रेम की प्रगाढ़ता सिद्ध करने की चेष्टा की है।

 

व्याख्या :-

          गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे भ्रमर ! (उद्धव !) हमें बतायो कि लड़फपन का प्रेम क्योंकर (कैसे) छूट सकता है अर्थात् कृष्णजी से हमारा प्रेम लड़कपन का प्रेम हैवह कैसे टूट सकता है ? (हम) ब्रजनाथ (श्रीकृष्ण) के चरित का कहाँ तक वर्णन करेंहमारी चित्त की वृत्तियां तो लुट चुकी हैअथवा हमारा मन आज भी उनके चरित का आनन्द लूट रहा है। चंचल गति (चाल) मनोहर दृष्टि, (मनमोहक मुस्कानमन्द ध्वनि से (गीत) गानानन्दनन्दन का नटवर वेषवन से घर की ओर आते हुए विनोद करना आदि को स्मरण कर आज भी हमारा मन लुट जाता है। एक गोपिका कहने लगी कि मैं चरण कमल कृष्णजी की शपथ लेकर कहती हूँ कि तुम्हारा सन्देश मुझे विष के समान लगता है । सूरदासजी कहते हैं कि उस गोपिका ने यह भी कहा कि मुझे सोते-जागते कृष्णजी की मनमोहक मूर्ति एक पल के लिए भी नहीं भूलती।


विशेषताएँ :-

(१) गोपियों का यह कथन अधिक व्यावहारिक है कि लड़कपन का प्रेम स्थायी होता है।

(२) प्रथम पंक्ति जीवनगत मार्मिक कथन की परिचायक है।

(३) अलंकार (क) चरण कमल में रूपक । (ख) 'यह सन्देश... विष सममें उपमा ।

 



              अखियाँ हरि दरसन को भूखी ।

        कैसे रहें रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी ।।

  अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहिं झखी।

   अब इन जोग-संदेसन ऊधो अति प्रकुलानी दूखी ॥

  बारक वह मुख फेरि दिखायो दुहि पय पिवत पतूखी ।

    सूर सिकत हठि नाव चलायो ये सरिता हैं सूखी ॥

 


प्रसंग :-

         कृष्ण- प्रेम की तन्मयता और निर्गुण- ज्ञान की आकांक्षा का उल्लेख करती हुई गोपियों का उद्धव के प्रति कथन ।

 

व्याख्या :-

          गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्भव ! (हमारी) आँखें तो कृष्ण दर्शन की भूखी हैं । (कृष्णजी के) रूप और रस (प्रेम) में पगी अर्थात् रूप-सुधा का पान करने वाली (अनुरक्त) ये आँखें (तुम्हारी) रुक्ष अथवा नीरस बातों को सुनकर कैसे रह सकती हैंकैसे सहन कर सकती हैं ? (कृष्णजी के लौटने की प्रतीक्षा की अवधि को गिनते-गिनतेटकटकी लगाए रास्ते को देखते हुए इतनी सन्तप्त नहीं हुईंजितनी अब योग-सन्देश से व्याकूल और दःखी हो रही हैं। हे उद्धव ! एक बार पुनः हमें ( कृष्णजी का ) वही मुख दिखाओ जो पत्ते के दोने में दूध दुहकर पीता था। सूरदासजी कहते हैं कि गोपियाँ कहने लगी कि ये सरिताएं (नदियाँ) सूखी हुई हैं, (तुम) रेत में नाव चलाने का हठ कर रहे हो अर्थात् गोपियों को निर्गुण- ज्ञान देना रेत में नाव चलाने के समान असंभव है। कृष्ण प्रेम में पगे हुए हमारे हृदय पर तुम्हारी योगशिक्षा का प्रभाव पड़ना सम्भव नहीं है।

 

विशेषताएँ :-

(१) रूपगुण की उपासना सगुण भक्ति का अंग है और इसके बाद निर्गुण के प्रति आस्था करना गोपियों के लिए असम्भव है।

(२) प्रेमातुर गोपियाँ उद्धव के सिद्धान्त का खण्डन अपने व्यावहारिक ज्ञान से कर रही हैं।

(३) अलंकार : (क) 'पय पिवत पतूखीमें अनुप्रास, (ख) 'ये सरिता हैं सूखीमें रूपकातिशयोक्ति ॥

 


निष्कर्ष :-

            भ्रमरगीत सार सूरदास द्वारा रचित एक भक्ति काव्य है जो गोपियों के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अद्वितीय प्रेम भावना को व्यक्त करता है। इस काव्य में गोपियाँ अपनी माधुर्य भावना, प्रेम, और विचारों को अपने मन के माध्यम से व्यक्त करती हैं, जिसे भ्रमर (भृंग) के साथ तुलना करके रचा गया है। भ्रमर यहाँ गोपियों की भावनाओं को सुनने के लिए एक प्रेमी के रूप में प्रतिष्ठित है।

              भ्रमरगीत सार में गोपियाँ अपने प्रेम और विश्वास को अद्वितीय भगवान के प्रति व्यक्त करती हैं, जिससे यह काव्य भक्ति और प्रेम की अद्वितीय अनुभूति को प्रस्तुत करता है। सूरदास के इस रचना में रस, अलंकार, और सौंदर्य के उदाहरण होते हैं, जो इसे एक अद्वितीय भक्तिकाव्य बनाते हैं। भ्रमरगीत सार एक अद्वितीय रूप से भक्ति और प्रेम को व्यक्त करने वाला एक अमूर्त भक्तिकाव्य है, जिसमें सूरदास ने गोपियों के माध्यम से भगवान के प्रति अपने अत्यंत सात्विक प्रेम का सुंदर वर्णन किया है।


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         में आशा करता हूँ की आपको भ्रमरगीत सार की जानकारी अच्छी लगी होगी । कई  सारे छात्रों के पास इंटरनेट की सुविधा अच्छी उपलब्ध नहीं है । जिसके कारण ओनलाइन कापी को पढ़ने के लिए समस्या का सामना  करना पड़ता है । इसलिए आपके लिए Hindi ek Safar ने pdf तैयार किया गया है आप निम्न दिए गए link से pdf download कर सकते है 


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💠 भ्रमरगीत सार में से प्रश्नोतरी 


प्रश्न 1. भ्रमरगीत सार किसकी रचना है ?

उतर :- भ्रमरगीत सार सूरदास की रचना है 


प्रश्न 2. महाकवि श्री सूरदास का जन्म कब हुआ था ?

उतर :- महाकवि श्री सूरदास का जन्म 1478 ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ था|


प्रश्न 3. भ्रमरगीत सार के पदों को किसके द्वारा संपादित किया गया था ?

उतर :- आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा भ्रमरगीत सार के पदों को संपादित किया गया था  ।


प्रश्न 4. भ्रमरगीत सार में लगभग कितने पदों को संगृहीत किया गया था ?
उतर :- भ्रमरगीत सार में लगभग ४०० पदों को छांटकर उनको 'भ्रमरगीत सारके रूप में प्रकाशित करवाया था।   

प्रश्न 5. सूरदास किसके उपासक थे ?
उतर :- सूरदास श्री कृष्ण के उपासक थे 

प्रश्न 6.  भक्तिकाल में किस कविका नाम सर्वोपरि लिया जाता था ?
उतर :- भक्तिकाल में सूरदास का नाम सर्वोपरि लिया जाता था 

प्रश्न 7. भ्रमरगीत सार में कौन से रसो का अधिक वर्णन है ?
उतर :- वात्सल्य श्रृंगार और शांत रसों का अधिक वर्णन मिलता है 

प्रश्न 8. भ्रमरगीत सार में सूरदासने किन पदों को समाहित किया है ?
उतर :- भ्रमरगीत सार में सूरदास ने मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को ब्रज संदेसा लेकर भेजते उन पदों को समाहित किया है 

प्रश्न 9. भ्रमरगीत सार में किन-किन लोगो के बिच की बातो का वर्णन अधिक मिलता है ?
उतर :- श्री कृष्ण और उद्धव , उद्धव और गोपियों के बिच की बातो का अधिक वर्णन मिलता है   
  

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