आँसुओं की होली कहानी की तात्विक समीक्षा । मुंशी प्रेमचन्द ।

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       आँसुओं की होली मुंशी प्रेमचंद की कहानी है । प्रस्तुत कहानी में श्रीविलास और मनहर के माध्यम से लेखक ने युवा पीढ़ी में अपने कर्तव्यों की अनदेखी का वर्णन किया है एक तरफ श्रीविलास मस्त व्यक्ति है दूसरी तरफ मनहर समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है  


              आँसुओं की होली

                                               - मुंशी प्रेमचन्द   


कथावस्तु :-   

         नामों को बिगाड़ने की प्रथा -जाने कब चली और कहाँ शुरू हुईइस संसारव्यापी रोग का पता लगाये तो ऐतिहासिक संसार में अवश्य ही अपना नाम छोड़ जाएपंडित जी का नाम तो श्रीविलास था; पर मित्र लोग सिलबिल कहा करते थेनामों का असर चरित्र पर कुछ कुछ पड़ जाता हैबेचारे सिलबिल सचमुच ही सिलबिल थेदफ्तर जा रहे हैं; मगर पाजामे का इजारबंद नीचे लटक रहा हैसिर पर फेल्ट-कैप है; पर लम्बी-सी चुटिया पीछे झाँक रही है, अचकन यों बहुत सुन्दर है

 

        जाने उन्हें त्योहारों से क्या चिढ़ थीदिवाली गुजर जाती पर वह भलामानस कौड़ी हाथ में लेताऔर होली का दिन तो उनकी भीषण परीक्षा का दिन थातीन दिन वह घर से बाहर निकलतेघर पर भी काले कपड़े पहने बैठे रहते थेयार लोग टोह में रहते थे कि कहीं बचा फँस जाएँ मगर घर में घुस कर तो फौजदारी नहीं की जातीएक-आधा बार फँसे भी, मगर घिघिया-पुदिया कर बेदाग निकल गयेलेकिन अबकी समस्या बहुत कठिन हो गयी थीशास्त्रों के अनुसार ह्म वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद उन्होंने विवाह किया थाब्रह्मचर्य के परिपक्व होने में जो थोड़ी-बहुत कसर रही, वह तीन वर्ष के गौने की मुद्दत ने पूरी कर दी

 

         यद्यपि स्त्री से कोई शंका थी, तथापि वह औरतों को सिर चढ़ाने के हामी थेइस मामले में उन्हें अपना वही पुराना-धुराना ढंग पसंद थाबीबी को जब कस कर डॉट दिया, तो उसकी मजाल है कि रंग हाथ से छुएविपत्ति यह थी कि ससुराल के लोग भी होली मनाने आनेवाले थेपुरानी मसल है : 'बहन अंदर तो भाई सिकंदर'इन सिकंदरों के आक्रमण से बचने का उन्हें कोई उपाय सूझता थामित्र लोग घर में जा सकते थे; लेकिन सिकंदरों को कौन रोक सकता है ?


स्त्री ने आँख फाड़ कर कहा -अरे भैया ! क्या सचमुच रंग घर लाओगे ? यह कैसी होली है, बाबा ?

       

        सिलबिल ने त्योरियाँ चढ़ा कर कहा -बस, मैंने एक बार कह दिया और बात दोहराना मुझे पसंद नहींघर में रंग नहीं आयेगा और कोई छुएगा ? मुझे कपड़ों पर लाल छींटे देख कर मचली आने लगती हैहमारे घर में ऐसी ही होली होती है


स्त्री ने सिर झुका कर कहा -तो लाना रंग-संग, मुझे रंग ले कर क्या करना हैजब तुम्हीं रंग छुओगे, तो मैं कैसे छू सकती हूँ


        सिलबिल ने प्रसन्न हो कर कहा -निस्संदेह यही साधवी स्त्री का धर्म है'लेकिन भैया तो आनेवाले हैंवह क्यों मानेंगे ?' 'उनके लिए भी मैंने एक उपाय सोच लिया हैउसे सफल बनाना तुम्हारा काम हैमैं बीमार बन जाऊँगाएक चादर ओढ़ कर लेट रहूँगातुम कहना इन्हें ज्वर गयाबस; चलो छुट्टी हुई'

 

        स्त्री ने आँख नचा कर कहा - नौज; कैसी बातें मुँह से निकालते हो ! ज्वर जाए मुद्दई के घर, यहाँ आये तो मुँह झुलस दूँ निगोड़े का'तो फिर दूसरा उपाय ही क्या है ?' 'तुम ऊपरवाली छोटी कोठरी में छिप रहना, मैं कह दूँगी, उन्होंने जुलाब लिया हैबाहर निकलेंगे तो हवा लग जायगी' पंडित जी खिल उठे , बस, बस, यही सबसे अच्छा1389 होली का दिन हैबाहर हाहाकार मचा हुआ हैपुराने जमाने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रंग खेला जाता थाअब नीले, हरे, काले, सभी रंगों का मेल हो गया है और इस संगठन से बचना आदमी के लिए तो संभव नहींहाँ, देवता बचेंसिलबिल के दोनों साले मुहल्ले भर के मर्दों, औरतों, बच्चों और बूढ़ों का निशाना बने हुए थेबाहर के दीवानखाने के फर्श, दीवारें , यहाँ तक की तसवीरें भी रंग उठी थींघर में भी यही हाल थामुहल्ले की ननदें भला कब मानने लगी थींपरनाला तक रंगीन हो गया था


बड़े साले ने पूछा-क्यों री चम्पा, क्या सचमुच उनकी तबीयत अच्छी नहीं ? खाना खाने भी आये ?


चम्पा ने सिर झुका कर कहा -हाँ भैया, रात ही से पेट में कुछ दर्द होने लगाडाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया है


जरा देर बाद छोटे साले ने कहा -क्यों जीजी जी, क्या भाई साहब नीचे नहीं आयेंगे ? ऐसी भी क्या बीमारी है ! कहो तो ऊपर जा कर देख आऊँ


चम्पा ने उसका हाथ पकड़ कर कहा -नहीं-नहीं, ऊपर मत जैयो ! वह रंग-वंग खेलेंगेडाक्टर ने हवा में निकलने को मना कर दिया हैदोनों भाई हाथ मल कर रह गये

 

        सहसा छोटे भाई को एक बात सूझी , जीजा जी के कपड़ों के साथ क्यों होली खेलेंवे तो नहीं बीमार हैंबड़े भाई के मन में यह बात बैठ गयीबहन बेचारी अब क्या करती ? सिकंदरों ने कुंजियाँ उसके हाथ से लीं और सिलबिल के सारे कपड़े निकाल-निकाल कर रंग डालेरूमाल तक छोड़ाजब चम्पा ने उन कपड़ों को आँगन में अलगनी पर सूखने को डाल दिया तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी रंगरेज ने ब्याह के जोड़े रँगे होंसिलबिल ऊपर बैठे-बैठे यह तमाशा देख रहे थे; पर जबान खोलते थेछाती पर साँप-सा लोट रहा थासारे कपड़े खराब हो गये, दफ्तर जाने को भी कुछ बचाइन दुष्टों को मेरे कपड़ों से जाने क्या बैर थाघर में नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बन रहे थेमुहल्ले की एक ब्राह्मणी के साथ चम्पा भी जुटी हुई थीदोनों भाई और कई अन्य सज्जन आँगन में भोजन करने बैठे, तो बड़े साले ने चम्पा से पूछा-कुछ उनके लिए भी खिचड़ी-विचड़ी बनायी है ? पूरियाँ तो बेचारे आज खा सकेंगे !


       चम्पा ने कहा -अभी तो नहीं बनायी, अब बना लूँगी'वाह री तेरी अक्ल ! अभी तक तुझे इतनी फिक्र नहीं कि वह बेचारे खायेंगे क्यातू तो इतनी लापरवाह कभी थीजा निकाल ला जल्दी से चावल और मूँग की दाल' लीजिए , खिचड़ी पकने लगीइधर मित्रों ने भोजन करना शुरू कियासिलबिल ऊपर बैठे अपनी किस्मत को रो रहे थेउन्हें इस सारी विपत्ति का एक ही कारण मालूम होता था , विवाह ! चम्पा आती, तो ये साले क्यों आते, कपड़े क्यों खराब होते, होली के दिन मूँग की खिचड़ी क्यों खाने को मिलती ? मगर अब पछताने से क्या होता हैजितनी देर में लोगों ने भोजन किया, उतनी देर में खिचड़ी तैयार हो गयीबड़े साले ने खुद चम्पा को ऊपर भेजा कि खिचड़ी की थाली ऊपर दे आये


सिलबिल ने थाली की ओर कुपित नेत्रों से देख कर कहा -इसे मेरे सामने से हटा ले जाव


'क्या आज उपवास ही करोगे ?'


'तुम्हारी यही इच्छा है, तो यही सही'


'मैंने क्या कियासबेरे से जुती हुई हूँभैया ने खुद खिचड़ी डलवायी और मुझे यहाँ भेजा'


'हाँ, वह तो मैं देख रहा हूँ कि मैं घर का स्वामी नहींसिकंदरों ने उस पर कब्जा जमा लिया है, मगर मैं यह नहीं मान सकता कि तुम चाहतीं तो और लोगों के पहले ही मेरे पास थाली पहुँच जातीमैं इसे पतिव्रत धर्म के विरुद्ध समझता हूँ, और क्या कहूँ !'


'तुम तो देख रहे थे कि दोनों जने मेरे सिर पर सवार थे'


'अच्छी दिल्लगी है कि और लोग तो समोसे और खस्ते उड़ायें और मुझे मूँग की खिचड़ी दी जाएवाह रे नसीब !'


'तुम इसे दो-चार कौर खा लो, मुझे ज्यों ही अवसर मिलेगा, दूसरी थाली लाऊँगी'


'सारे कपड़े रँगवा डाले, दफ्तर कैसे जाऊँगा ? यह दिल्लगी मुझे जरा भी नहीं भातीमैं इसे बदमाशी कहता हूँतुमने संदूक की कुंजी क्यों दे दी ? क्या मैं इतना पूछ सकता हूँ ?'


'जबरदस्ती छीन लीतुमने सुना नहीं ? करती क्या ?'


'अच्छा, जो हुआ सो हुआ, यह थाली ले जावधर्म समझना तो दूसरी थाली लाना, नहीं तो आज व्रत ही सही' एकाएक पैरों की आहट पा कर सिलबिल ने सामने देखा, तो दोनों साले रहे हैंउन्हें देखते ही बिचारे ने मुँह बना लिया, चादर से शरीर ढँक लिया और कराहने लगे


बड़े साले ने कहा -कहिए, कैसी तबीयत है ? थोड़ी-सी खिचड़ी खा लीजिए


सिलबिल ने मुँह बना कर कहा -अभी तो कुछ खाने की इच्छा नहीं है


'नहीं, उपवास करना तो हानिकर होगाखिचड़ी खा लीजिए'


        बेचारे सिलबिल ने मन में इन दोनों शैतानों को खूब कोसा और विष की भाँति खिचड़ी कंठ के नीचे उतारीआज होली के दिन खिचड़ी ही भाग्य में लिखी थी ! जब तक सारी खिचड़ी समाप्त हो गयी, दोनों वहाँ डटे रहे, मानो जेल के अधिकारी किसी अनशन व्रतधारी कैदी को भोजन करा रहे होंबेचारे को ठूँस-ठूँस कर खिचड़ी खानी पड़ीपकवानों के लिए गुंजायश ही रहीदस बजे रात को चम्पा उत्तम पदार्थों का थाल लिये पतिदेव के पास पहुँची ! महाशय मन ही मन झुँझला रहे थेभाइयों के सामने मेरी परवाह कौन करता है जाने कहाँ से दोनों शैतान फट पड़ेदिन भर उपवास कराया और अभी तक भोजन का कहीं पता नहींबारे चम्पा को थाल लाते देख कर कुछ अग्नि शांत हुई


बोले - अब तो बहुत सबेरा है, एक-दो घंटे बाद क्यों आयीं ? चम्पा ने सामने थाली रख कर कहा -तुम तो हारी ही मानते हो, जीतीअब आखिर ये दो मेहमान आये हुए हैं, इनकी सेवा-सत्कार करूँ तो भी तो काम नहीं चलतातुम्हीं को बुरा लगेगाकौन रोज आयेंगे


'ईश्वर करे कि रोज आयें, यहाँ तो एक ही दिन में बधिया बैठ गयी' थाल की सुगंधमय, तरबतर चीजें देख कर सहसा पंडित जी के मुखारविंद पर मुस्कान की लाली दौड़ गयीएक-एक चीज खाते थे और चम्पा को सराहते थे , सच कहता हूँ, चम्पा; मैंने ऐसी चीजें कभी नहीं खायी थींहलवाई साला क्या बनायेगाजी चाहता है, कुछ इनाम दूँ


'तुम मुझे बना रहे होक्या करूँ जैसा बनाना आता है, बना लायी'


'नहीं जी, सच कह रहा हूँमेरी तो आत्मा तक तृप्त हो गयीआज मुझे ज्ञात हुआ कि भोजन का सम्बन्ध उदर से इतना नहीं, जितना आत्मा से हैबतलाओ, क्या इनाम दूँ ?'


'जो मागूँ, वह दोगे ?'


'दूँगा , जनेऊ की कसम खा कर कहता हूँ !'


' दो तो मेरी बात जाए'


'कहता हूँ भाई, अब कैसे कहूँक्या लिखा-पढ़ी कर दूँ ?'


'अच्छा, तो माँगती हूँमुझे अपने साथ होली खेलने दो


'पंडित जी का रंग उड़ गयाआँखें फाड़ कर बोले - होली खेलने दूँ ? मैं तो होली खेलता नहींकभी नहीं खेलाहोली खेलना होता, तो घर में छिप कर क्यों बैठता


'और के साथ मत खेलो; लेकिन मेरे साथ तो खेलना ही पड़ेगा'


'यह मेरे नियम के विरुद्ध हैजिस चीज को अपने घर में उचित समझूँ उसे किस न्याय से घर के बाहर अनुचित समझूँ, सोचो


' चम्पा ने सिर नीचा करके कहा -घर में ऐसी कितनी बातें उचित समझते हो, जो घर के बाहर करना अनुचित ही नहीं पाप भी हैपंडित जी झेंपते हुए बोले - अच्छा भाई, तुम जीती, मैं हाराअब मैं तुम से यही दान माँगता हूँ...


'पहले मेरा पुरस्कार दे दो, पीछे मुझसे दान माँगना' , यह कहते हुए चम्पा ने लोटे का रंग उठा लिया और पंडित जी को सिर से पाँव तक नहला दिया


         जब तक वह उठ कर भागें उसने मुट्ठी भर गुलाल ले कर सारे मुँह में पोत दियापंडित जी रोनी सूरत बना कर बोले- अभी और कसर बाकी हो, तो वह भी पूरी कर लोमैं जानता था कि तुम मेरी आस्तीन का साँप बनोगीअब और कुछ रंग बाकी नहीं रहा ? चम्पा ने पति के मुख की ओर देखा, तो उस पर मनोवेदना का गहरा रंग झलक रहा था


पछता कर बोली- क्या तुम सचमुच बुरा मान गये हो ? मैं तो समझती थी कि तुम केवल मुझे चिढ़ा रहे हो


         श्रीविलास ने काँपते हुए स्वर में कहा- नहीं चम्पा, मुझे बुरा नहीं लगाहाँ, तुमने मुझे उस कर्तव्य की याद दिला दी, जो मैं अपनी कायरता के कारण भुला बैठा थावह सामने जो चित्र देख रही हो, मेरे परम मित्र मनहरनाथ का है, जो अब संसार में नहीं हैतुमसे क्या कहूँ, कितना सरस, कितना भावुक, कितना साहसी आदमी था ! देश की दशा देख-देख कर उसका खून जलता रहता थाह्म भी कोई उम्र होती है, पर वह उसी उम्र में अपने जीवन का मार्ग निश्चित कर चुका थासेवा करने का अवसर पा कर वह इस तरह उसे पकड़ता था, मानो सम्पत्ति होजन्म का विरागी थावासना तो उसे छू ही गयी थीहमारे और साथी सैर-सपाटे करते थे; पर उसका मार्ग सबसे अलग थासत्य के लिए प्राण देने को तैयार, कहीं अन्याय देखा और भवें तन गयीं, कहीं पत्रों में अत्याचार की खबर देखी और चेहरा तमतमा उठाऐसा तो मैंने आदमी ही नहीं देखाईश्वर ने अकाल ही बुला लिया, नहीं तो वह मनुष्यों में रत्न होताकिसी मुसीबत के मारे का उद्धार करने को अपने प्राण हथेली पर लिये फिरता थास्त्री-जाति का इतना आदर और सम्मान कोई क्या करेगा ? स्त्री उसके लिए पूजा और भक्ति की वस्तु थीपाँच वर्ष हुए, यही होली का दिन थामैं भंग के नशे में चूर, रंग में सिर से पाँव तक नहाया हुआ, उसे गाना सुनने के लिए बुलाने गया, तो देखा कि वह कपड़े पहने कहीं जाने को तैयार है


पूछा-कहाँ जा रहे हो ?


           उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा -तुम अच्छे वक्त पर गये, नहीं तो मुझे जाना पड़ताएक अनाथ बुढ़िया मर गयी है, कोई उसे कंधा देनेवाला नहीं मिलताकोई किसी मित्र से मिलने गया हुआ है, कोई नशे में चूर पड़ा हुआ है, कोई मित्रों की दावत कर रहा है, कोई महफिल सजाये बैठा हैकोई लाश को उठानेवाला नहींब्राह्मण-क्षत्री उस चमारिन की लाश कैसे छुएँगे, उनका तो धर्म भ्रष्ट होता है, कोई तैयार नहीं होता ! बड़ी मुश्किल से दो कहार मिले हैंएक मैं हूँ, चौथे आदमी की कमी थी, सो ईश्वर ने तुम्हें भेज दियाचलो, चलेंहाय ! अगर मैं जानता कि यह प्यारे मनहर का आदेश है, तो आज मेरी आत्मा को इतनी ग्लानि होतीमेरे घर कई मित्र आये हुए थेगाना हो रहा थाउस वक्त लाश उठा कर नदी जाना मुझे अप्रिय लगा


बोला - इस वक्त तो भाई, मैं नहीं जा सकूँगाघर पर मेहमान बैठे हुए हैंमैं तुम्हें बुलाने आया था


          मनहर ने मेरी ओर तिरस्कार के नेत्रों से देख कर कहा -अच्छी बात है, तुम जाओ; मैं और कोई साथी खोज लूँगामगर तुमसे मुझे ऐसी आशा नहीं थीतुमने भी वही कहा, जो तुमसे पहले औरों ने कहा थाकोई नयी बात नहीं थीअगर हम लोग अपने कर्तव्य को भूल गये होते, तो आज यह दशा ही क्यों होती ? ऐसी होली को धिक्कार है ! त्योहार, तमाशा देखने, अच्छी-अच्छी चीजें खाने और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का नाम नहीं हैयह व्रत है, तप है, अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही त्योहार का खास मतलब है और कपड़े लाल करने के पहले खून को लाल कर लोसफेद खून पर यह लाली शोभा नहीं देतीयह कह कर वह चला गयामुझे उस वक्त यह फटकारें बहुत बुरी मालूम हुईंअगर मुझमें वह सेवा-भाव था, तो उसे मुझे यों धिक्कारने का कोई अधिकार थाघर चला आया; पर वे बातें बराबर मेरे कानों में गूँजती रहींहोली का सारा मजा बिगड़ गयाएक महीने तक हम दोनों की मुलाकात हुईकालेज इम्तहान की तैयारी के लिए बंद हो गया थाइसलिए कालेज में भी भेंट होती थीमुझे कुछ खबर नहीं, वह कब और कैसे बीमार पड़ा, कब अपने घर गयासहसा एक दिन मुझे उसका एक पत्र मिलाहाय ! उस पत्र को पढ़कर आज भी छाती फटने लगती हैश्रीविलास एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल सके


         फिर बोले - किसी दिन तुम्हें फिर दिखाऊँगालिखा था, मुझसे आखिरी बार मिल जा, अब शायद इस जीवन में भेंट होखत मेरे हाथ से छूट कर गिर पड़ाउसका घर मेरठ के जिले में थादूसरी गाड़ी जाने में आधा घंटे की कसर थीतुरंत चल पड़ामगर उसके दर्शन बदे थेमेरे पहुँचने के पहले ही वह सिधार चुका थाचम्पा, उसके बाद मैंने होली नहीं खेली, होली ही नहीं, और सभी त्योहार छोड़ दियेईश्वर ने शायद मुझे क्रिया की शक्ति नहीं दीअब बहुत चाहता हूँ कि कोई मुझसे सेवा का काम लेखुद आगे नहीं बढ़ सकता; लेकिन पीछे चलने को तैयार हूँपर मुझसे कोई काम लेनेवाला भी नहीं; लेकिन आज वह रंग डाल कर तुमने मुझे उस धिक्कार की याद दिला दीईश्वर मुझे ऐसी शक्ति दे कि मैं मन में ही नहीं, कर्म में भी मनहर बनूँयह कहते हुए श्रीविलास ने तश्तरी से गुलाल निकाला और उसे चित्र पर छिड़क कर प्रणाम किया


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'आँसुओं  की होली' कहानी की तात्विक समीक्षा 


            मुंशी प्रेमचन्द का हिन्दी - साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान हैप्रस्तुत कहानी में श्री विलास और मनहर के माध्यम से लेखक ने युवा पीढ़ी में अपने कर्त्तव्यों की अनदेखी का वर्णन किया हैएक तरफ विलास मस्त व्यक्ति है दूसरी तरफ मनहर समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करता हैकहानी की तात्विक समीक्षा इस प्रकार है 

                

         शीर्षक किसी भी कहानी का प्राथमिक उपकरण हैशीर्षक में स्पष्टता सरलता, संक्षिप्तता और जिज्ञासा का होना अनिवार्य हैप्रस्तुत कहानी का शीर्षक 'आँसुओं की होली हैइस शीर्षक में जिज्ञासा देखने को मिलती है क्योंकि इस कहानी के शीर्षक को पढ़ने के उपरान्त पाठक यह जानना चाहता है कि 'आँसुओं की होली क्या हैहोली तो रंगों का त्योहार है, इसमें आँसुओं का प्रयोग क्यों किया गया हैकहानी को पढ़ने के पश्चात् ही पाठक की जिज्ञासा शांत होती हैइतना ही नहीं शीर्षक विषयानुकूल होना चाहिएइस कहानी में होली का वर्णन हैश्री विलास इस कहानी का केन्द्र बिन्दु हैकहानी का मूल उद्देश्य भी उसी के माध्यम से पूर्ण हुआ हैअतः शीर्षक में अर्थपूर्णता तथा सार्थकता भी है

 

कथानक :-

          कहानी का पहला तथा महत्वपूर्ण तत्व कथावस्तु हैकथावस्तु के अभाव में कहानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती हैकहानी का आरंभ इस पंक्ति से हुआ है, "नामों को बिगाड़ने की प्रथा जाने कब चली और कहाँ शुरू हुई" यह वाक्य जिज्ञासा से भरा है जो पाठकों को कहानी पढ़ने के लिए विवश करता हैकथावस्तु का आरम्भ तथा अंत बहुत ही सुंदर तरीके से किया है और साथ ही 'आँसुओं की होली' के भीतर छुपे रहस्य को भी उजागर करता हैजैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे-वैसे श्रीविलास के मन में छुपी कमजोरी और होली खेलने के रहस्य का भेद खुलता हैजब श्रीविलास की पत्नी चम्पा रंग डालती है तो उसे अपना अतीत याद जाता हैवह अपने मित्र मनहर का वर्णन अपनी पत्नी के समक्ष करता हैमनहर कर्मशील व्यक्ति था. देश तथा समाज की सेवा में व्यस्त रहता थामनहर की मृत्यु का गहरा असर श्री विलास पर पढ़ता है और वह एक कर्मशील युवक बनने का प्रण लेता हैकथावस्तु का आधार ग्लानि में जीने वाला युवक है जो पत्नी के रंग डालने पर अपने कर्त्तव्य को याद करता हुआ कर्मशील मनहर बनने का संकल्प लेता है

 

पात्र चरित्र-चित्रण :-

        कथावस्तु के उपरान्त पात्र योजना को ही स्थान दिया गया हैपात्रों के कारण ही कहानी की कथा को आगे बढ़ाया जा सकता हैलेखक पात्रों के द्वारा यह भी प्रस्तुत करता है कि मनुष्य का चरित्र तथा व्यक्तित्व किस प्रकार निर्मित और किन परिस्थितियों से प्रभावित और परिवर्तित होता हैप्रस्तुत कहानी में श्री विलास, चंपा, मनहर और चंपा के दो भाईयों का चरित्र चित्रण हुआ हैश्रीविलास कहानी का मुख्य पात्र हैवह अपने मन की कायरता को छुपाकर रखता हैउसके मन की कमज़ोरी उसे होली के दिन छिपकर बैठने को मजबूर करती हैवह अपने कर्त्तव्यों से भटका हुआ युवक हैवह मस्त युवक रहा हैमौज-मस्ती उसके जीवन का लक्ष्य रहा करती थीवह कुछ भी करने से डरता थापत्नी द्वारा जब रंग उस पर पड़ता है तो उसे अपने मित्र मनहर का साहस, सेवा भावुक बातें याद आती हैंवह अपनी कायरता को होली के दिन आँसुओं से धो डालता है तथा कर्मशील व्यक्ति बनने का निर्णय लेता हैचंपा श्रीविलास की पत्नी हैवह पतिव्रता स्त्री हैवह अपने पति का साथ कभी नहीं छोड़तीचाहे दुख हो या सुख उसने पत्नी कर्त्तव्य पूरी निष्ठा से निभाया हैपति होली खेलने से डरता है अपने भाईयों से बचाने के लिए वह पति का साथ देती हैपति जब बीमार होने का नाटक करता है तो वह पूरा सहयोग करती हैत्योहार पर जब बहुत सारे पकवान बनते है तो वह बीमारी के चलते उन्हें खिचड़ी खिलाती है लेकिन जब सारे सो जाते हैं तो चोरी से उसे थाली भर कर पकवान खिलाकर प्रसन्न होती हैपति की सेवा में ही वह अपना सुख समझती थीपति उसकी सेवा की भावना देखकर जब उससे कुछ मांगने को कहता है तो वह होली खेलने की इच्छा प्रकट करती हैपरिणामस्वरूप वह अपनी पत्नी की इच्छा को पूर्ण करता है, " चंपा ने लोटे का रंग उठा लिया और पंडितजी को सिर से पाँव तक नहला दियाजब तक वह उठकर भागे उसने मुट्ठी भर गुलाल लेकर सारे मुँह पर पोत दिया" चपा का चरित्र पतिव्रता स्त्री का है

 

         मनहर इस कहानी का गौण पात्र होते हुए भी कहानी पर प्रमुख छाप छोड़ता हैमनोहर दृढ चरित्र का युवक थाजिसके जीवन का उद्देश्य देश तथा समाज की सेवा करना थावह अपने कर्त्तव्य से पीछे नहीं हटता हैमनहर और श्रीविलास दोनों मित्र थेवह श्रीविलास को दूसरों के काम आने पर धिक्कारता है और होली के त्योहार का अर्थ समझाता है, "त्योहार तमाशा देखने, अच्छी-अच्छी चीजे खाने और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का नाम नहीं हैवह व्रत है, तप है अपने भाइयों से प्रेम और सहानुभूति करना ही त्योहार का खास मतलब है और कपड़े लाल करने से पहले खून को लाल कर लोसफेद खून पर यह लाली शोभा नहीं देती" मनहर की मृत्यु श्री विलास का जीवन बदल देती हैवह एक कर्मशील व्यक्ति बनने का संकल्प करता हैसंपूर्ण कहानी चरित्र चित्रण की दृष्टि से सफल है

 

संवाद - योजना :-

          कहानी का महत्वपूर्ण उपकरण संवाद- योजना हैप्रस्तुत कहानी का अधिकांश भाग वर्णनात्मक हैश्री विलास और चंपा के संवादों का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

 

चंपा - जो माँगू, वह दोगे?"

 

दूँगा जनेऊ की कसम खाकर कहता हूँ"

 

दो तो मेरी बात जाय

 

कहता हूँ भाई, अब कैसे कहूँ! क्या लिख-पढ़ी कर दूँ?" 'अच्छा तो मांगती हूँमुझे अपने साथ होली खेलने दो'

 

श्री विलास का यह संवाद उसकी कायरता को समाप्त करता है- ईश्वर मुझे शक्ति दे कि मैं मन से ही नहीं, कर्म से भी मनहर बनूँ

 

देशकाल एवं वातावरण :-

       कहानी में वातावरण घटना, व्यापार तथा पात्र योजना के अनुकूल होता है जो कहानी को सफल एवं स्वाभाविक बनाता हैइसमें होली के वातावरण का वर्णन इस प्रकार किया है "होली का दिन हैबाहर हाहाकार मचा हुआ हैपुराने जमाने में अबीर और गुलाल के सिवा और कोई रंग खेला जाता थाअब नीले, हरे, काले, सभी रंगों का मेल हो गया है और इस संगठन से बचना आदमी के लिए तो संभव नहींहाँ देवता बचे"

 

भाषा-शैली :-

      कहानी की भाषा सरल, स्पष्ट हैकहानी में कहीं पर भी जटिलता देखने को नहीं मिलतीकहानी की भाषा भावानुरूप हैउदाहरण के तौर पर जब श्रीविलास को अपने मित्र का पत्र मिलता है, "श्रीविलास एक क्षण तक गला रुक जाने के कारण बोल सकेलिखा था, मुझसे आखिरी बार मिल जा, अब शायद इस जीवन में भेंट होखत मेरे हाथों से छूटकर गिर गया... मगर उसके दर्शन बदे थेमेरे पहुँचने के पहले ही वह सिधार चुका था"

 

उद्देश्य :-

      कहानी में केवल मनोरंजन को ही व्यक्त नहीं किया बल्कि इसमें उद्देश्य की भी अभिव्यक्ति हुई हैइसमें एक कमज़ोर एवं कायर व्यक्ति का वर्णन किया है जो सामाजिक कार्यों से विमुख रहता हैमित्र मनहर के परामर्श अनुसार वह आगे तो बढ़ता है लेकिन मन रूपी कमजोर रहता हैउसके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं हैश्रीविलास के मित्र मनहर की जब मृत्यु होती है तो उसके जीवन में बदलाव होता हैपत्नी द्वारा रंग डालने पर उसकी कायरता धुल जाती है और मन में छिपी उसकी कुठा का कारण भी हमारे समक्ष जाता हैअब श्री विलास एक कर्मशील व्यक्ति बनने का निर्णय लेता हैयह एक सामाजिक, चरित्र - प्रधान तथा मनोवैज्ञानिक कहानी भी है


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